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गुरूकुल

श्रीमती कविता मल्होत्रा

दोस्तों मित्रता दिवस की रस्म हम यूँ निभा लेते हैं

निस्वार्थ प्रेम बनकर निस्वार्थता को मित्र बना लेते हैं

अपने घरौंदों की जड़ें दिमाग़ में न बनाकर दिलों में बनाई जाएँ तो हर एक घर ही मंदिर हो जाए !!

दिलों को अपनी ख्वाहिशों की सियासत नहीं बल्कि जीवन के परम उद्देश्य की पूर्ति की विरासत समझा जाए तो हर दिल शिवालय हो जाए !!

           प्रकृति की चाल पर लगाम लगाने की बजाय अपने स्वार्थ को क़ाबू में रखकर प्रकृति से सामँजस्य बैठाना आ जाए तो समूची सृष्टि इबादतगाह बन जाए !!

जो पल है वो अभी है, कल का इंतज़ार न करके अगर अब्दुल कलाम, विवेकानंद, गुरू नानक और कबीर की तरह लक्ष्य साधकर एक साधक का जीवन जिया जाए तो समूचा विश्व ही गुरूकुल हो जाए !!

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गुरूकुल फिर एक बनाया जाए

शून्यता का पाठ जहाँ पढ़ाया जाए

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मटके का पानी पीकर आज भी जो तृप्ति मिलती है वो मशीनी ठँडक में कहाँ !!

चारदीवारी कब रौनक़ों की गवाह बनती है, मकान तो वहीं घर परिवार है जहाँ !!

दिल ओ दिमाग़ में शून्यता लाकर तो देखो, नूरानी दौलत का अँबार है वहाँ !!

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इँसानी प्रवृत्ति है कि हर इंसान मटके के गुण देखकर मटके जैसी ठँडक संजोने की कोशिश करता है, खुद वो ठंडक नहीं हो पाता, क्यूँकि तमाम इकट्ठा किए हुए ज्ञान का गर्व उसे मटके की तरह अँदर से तो खाली होने ही नहीं देता, जो शून्यता मटके को जल ग्राह्यता का पात्र बनाती है, अगर इंसान वो पात्रता खुद में बना पाए तो शीतलता को आने से कोई नहीं रोक सकता।इसलिए सतही गुणों या बनावट की नहीं बल्कि पात्रता की पहचान अगर इंसान अपनी भावी पीढ़ी को दे पाए तो फिर से एक गुरूकुल की स्थापना हो सकती है, जो आज के समय की स्थिति की सर्वाधिक ज़रूरत है, जिससे समूची सृष्टि का सर्वांगीण विकास हो सके।

कितनी उम्मीदें संजोता है इँसान जब थोड़ा सा समझदार होता है, लेकिन अपनी ख्वाहिशों की उम्मीदें संजोने की यही समझदारी उसे ले डूबती है, क्यूँकि अगर इँसान खुद ही उम्मीद का चिराग़ बन जाए तो उसके अँतर्मन में भी उजाला हो जाए और उसके आसपास का अँधकार भी मिट जाए।

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पूछा है मुझसे किसी अपने ने

तुम्हारा रंग क्यूँ काला हो गया

निरूत्तर हर शब्द का उच्चारण

मौन,तम हरता उजाला हो गया

बाग़बान की चाबियाँ सौंपीं तो

स्वँय माली हरियाला हो गया

रँगत अब उस नूर की मुखर है

जो बाँटता वात्सल्य प्रचुर है

अमावस जाते ही पूनम आएगी

तभी रूह स्वर्गवासी कहलाएगी

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स्वर्ग की सल्तनत तो हर इंसान अपने साथ लिए घूमता है मग़र उसकी नज़र दूसरों की कमाई हुई नश्वर दौलत पर रहती है, जिसे हासिल करने की कामना में इँसान कभी किसी की सोचों का ग़ुलाम बन जाता है तो कभी स्वार्थों के रथ का सारथी, इसीलिए अँतहीन सफ़र का सिलसिला जारी रहता है और जीवन का क़ाफ़िला कहीं पहुँच ही नहीं पाता।

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जीवन-सफ़र का हर पड़ाव एक आयत है

मस्जिदों में यही तो समझाने की रवायत है

साखी हर कदम पे बिखरी पलकों से उठा लो

गुरुद्वारों की शिक्षाओं से सच्चा सौदा कमा लो

गीता के श्लोक गुँजित हैं हर आँख की नमी में

देख सको तो दर्शित हरिमंदिर दिल की ज़मीं में

सीखें सिखाते गिरजाघर की प्रार्थनाओं के सुर

मानवता की सेवा में छिपे ईश-अराधना के गुर

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पराई अस्मिता दाँव पर लगाकर, दूसरों के हिस्से मारकर, मानवता के पतन कर्ताओं द्वारा किए गए सब जप तप हवन यज्ञ असफल हो जाते हैं।रेश्मी चादरों में लिपटे बगीचे से उखाड़े गए फूलों को किस ईश्वर की प्रतिमा स्वीकार करती है ?सच्चे दरबार में तो केवल भक्त का भाव स्वीकृत होता है

इसलिए दैहिक स्तर की तृप्तियों की ग़ुलामी छोड़ कर यदि आत्मिक भाव की तृप्ति के लिए एक एैसे गुरूकुल की स्थापना की जाए जो इँसान को गहराई के रास्ते ऊँचाई पर ले जाए तभी वैश्विक कल्याण की बुनियाद को मज़बूती मिलेगी।

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चढ़ाया था जो अब तक चढ़ावा

ज़रा सोचें, क्यूँ हुआ अस्वीकार

तोड़ें न किसी वृक्ष की शाखाएँ

ये तो प्रकृति का दिया उपहार

केवल कैसे कमाना न सिखाएँ

क्या है कमाना अब यही पढ़ाएँ

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