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पिता (कविता-2)

दीया में तेलशक्ति भले क्षीण हो

पिता सूर्य की तरह जला है;

राहें अंधियारी उबड़ खाबड़

अपनों के खातिर सदा चला है!

              अपनों के खातिर सदा चला है!!

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तूफान के साये काले कंदर्प

टूटा न उसका लोहित दर्प

लहूलुहान हुआ अपनों के लिए

दिल में रख बस एक तड़प!

                दिल में रख बस एक तड़प!!

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तुम क्या जानो पिता क्या होता है?

तुम क्या जानो कैसे रातें सोता है ??

परिवार घरौंदा की दुनिया का

वह ब्रह्मा विष्णु महेश होता है !

               वह ब्रह्मा विष्णु महेश होता है!!

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पंखों को वह नोंच नोंच कर

घोसला स्वप्न लोक सजाता ;

सींच सींच श्रम सींकर अपना

चुन चुन फुलवारी एक लगाता!

                चुन चुन फुलवारी लगाता!!

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आसमान सा जगता है वह

धरती सा गुमसुम रहता ;

व्यथा कथा हृदय में रख

वह आघात संघातें सहता!

               वह आघात संघातें सहता!!

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चिन्ता में भोर हो आती

सूरज जैसै कल रात न सोया;

सूजी आंखें किसे दिखाये

जिम्मेदारी खुद है रोपा बोया!

                जिम्मेदारी खुद रोपा बोया!!

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हंसता है वह तिस पर भी

हांथ पकड़ राह दिखाता ;

पर क्या वह पुत्र पिता का

दर्द कराह सुन भी  पाता?

               दर्द कराह सुन भी पाता??

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निर्वहन की यही परम्परा

उड़ना पंखों को सिखाना;

ले अपने चिरैय्या चुरमुन

फुर्र से एक दिन उड़जाना!

                फुर्र से एक दिन उड़ जाना!!

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-अंजनीकुमार’सुधाकर’

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