है आधारशिला उन सपनों की
जिस पर यह परिवार टिका
जग में सर्व प्रिय उद्भोधन है
उसको हमने कहा पिता।
संस्कार सहित हृदय से अपने
सींच रहा परिवार का उपवन
ख़ुद सहकर कष्ट सारा
लगा रहा तन मन धन
प्रातकाल निद्रा को त्यागें
कर्मस्थली की ओर भागे
कार्य स्थल में करके कार्य
लोटे थका हारा हर शाम।
बच्चों को जब ले गोदी में
नवीन हों फिर उसके प्राण।
कार्य बहुत, कर्तव्य बहुत
उसने रुकना ना जाना
फ़ौलाद का सा दिल है उसका
उसने रोना नहीं जाना।
तत्परता तल्लीनता धैर्य और विश्वास
एक पिता है जिसमें ये सब मिलता साथ
नर रूप में धरा पर लिए नया एक
वेश
तू ही ब्रह्मा, तू ही विष्णु,तू ही है
महेश
अपने थोड़े से वेतन में
उसने श्रृंगार किया है घर का
बच्चों की ख़ुशी की खातिर
सब कुछ बलिदान किया अपना।
माथे पर फिर भी शिकन नहीं
निस्वार्थ भाव से सेवा करता
दायित्वों को पूरा करता
है कर्मस्थली यह जग सारा
कौन जीता यहां कौन हारा
दुःख सुख की साथी है जो
पत्नी पर विश्वास है करता।
कैसे कोई भूले पिताश्री को
जिसके पैरों की रज में
देव तुल्य विश्वास झलकता।
आओ हम सब मात पिता के
चरणों की कर लें पूजा
ऐसा इस जग में
और कोई काम नहीं है दूजा।
हीरेंद्र चौधरी
द्वारका, दिल्ली