प्रकृति से प्रेम होने के कारण अक्सर मेरी भोर अँतस्थली में बहते सागर मँथन से आरँभ हुआ करती थी। पावनता की तरँगें मानवता की सरहदें मानने को तैयार ही नहीं होतीं थीं।इसलिए मेरे मन में बहता भाईचारे का चिनाब निस्वार्थ मोहब्बत की रावी से मिलने को बेचैन हो उठता था। मेरा सारा वजूद वैश्विक बँधुत्व की खाई को पाटने की साज़िशें रचने लगा था। कितनी मासूमियत रही होगी मेरी उल्फत में जिसने मेरे वैश्विक प्रेम के इश्क को इबादत में रूपाँतरित कर दिया,और समस्त ब्रह्माण्ड ने मेरे इस जीवन यज्ञ में अपना योगदान दिया। जीवन गँगा में आरती के अनगिनत दीप भी जले और सँसारिकता के कई अस्थि कलश भी समाहित हुए। जीवन प्रवाह में कई शैतानी बाधाएँ आईं, जिनसे, स्वँय सृष्टि ने मुझे अपने आग़ोश में ले कर निकाला, और पाक़ीज़ा आयतों में परिवर्तित कर दिया। मेरी रूह पर परमपिता की आशीष थी, शायद इसीलिए, मुझसे मिलने वाला सारा कचरा वेदों की ऋचाओं में बदल गया। मेरा प्रयास सदा से एक ही रहा था कि –
कभी किसी रावी से उसका चिनाब जुदा ना हो
किसी भी जन्म मेरी रूह पर मजहबी खुदा न हो
साँसें सृष्टि-सेवा में चलें कभी क़र्ज़ ये अदा न हो
सारी क़ायनात ने मेरे इस स्वर्णिम स्वप्न को साकार करने में मेरा साथ दिया और 27 सितँबर 2019 में मानव मूल्यों को समर्पित सामाजिक सेवा सँस्थान “वात्सल्य” की स्थापना हुई।मदर टेरेसा के व्यक्तित्व से प्रेरित मेरी उड़ान को दिव्यता के पँख लग गए, जिस से मेरे जीवन का सफर विश्व कल्याण की ऋचाओं से गुँजित हो उठा।
न तो मेरे पास अपार धन था जिस से मैं किसी का भला कर पाती, न ही मेरे पास उच्च शिक्षा की कोई उपाधि थी, जो किसी का भी मार्गदर्शन करने में सहायक सिद्ध होती। मेरे पास था तो केवल एक अटल इरादा, जिसने मेरे इस ड्रीम प्रोजैक्ट के ख़्वाब को साकार किया।गुरूनानक देव जी के दिखाए सच्चे सौदे के रास्तों पर चलने की चाह में, गुरूनानक देव जी के 550वें प्रकाशोत्सव के अवसर पर तीन पीढ़ियों के कल्याण के लिए समर्पित अपनी “वात्सल्य वाटिका” की बुनियाद अपने गाँव में प्रीतिभोज के साथ
रखी, जहाँ सभी का प्यार भी मिला और आशीर्वाद भी।