(कविता मल्होत्रा )
प्रदूषित मानसिकताओं के सँक्रमण से इस तरह सोशल डिस्टेंस बनाया जाए
अपने अहम का सफ़ाया कर के “मैं” की महामारी से खुद को बचाया जाए
ज़रा सोचिए –
कल तक समूचे विश्व के तमाम देशों में एक दूसरे पर अपना वर्चस्व क़ायम करने की होड़ लगी हुई थी, और आज अचानक सब एक दूसरे का साथ देने को तैयार हो गए हैं।है ना कमाल की बात।
आखिर एैसा क्या हो गया जिसने समूचे विश्व के अहम को धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया!
प्रकृति से छेड़छाड़ का कितना भयँकर नतीजा आया जो अपने साथ प्राकृतिक आपदा का एैसा प्रकोप लाया जिसने समूचे विश्व को अपनी गिरफ़्त में ले लिया!
आज भी लॉक डाऊन पीरियड में कुछ लोग रियल लाइफ को नज़रअन्दाज़ कर के, केवल छोटे पर्दे की रील लाइफ से मुग्ध होकर छुट्टियाँ मना रहे हैं, और देश को आज भी हर घर गली-मोहल्ले, गाँव-शहर से कचरा उठा कर वो लोग चला रहे हैं, जिन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता था। वाक़ई सम्मान का हक़दार तो वही तबक़ा है, जो हर ज़हन की प्रदूषित मानसिकताओं के कीटाणु अपने ऊपर झेल कर, स्वच्छ वातावरण के निर्माण में अपना योगदान देता है। क्या इस तबके का परिवार सहयोग और सम्मान का हक़दार नहीं। वर्ग विशेष से अलँकृत ये तबक़ा आज समूचे विश्व से सम्मान पाने का अधिकारी है।
हमें अपनी प्रदूषित मानसिकताओं के कीटाणुओं से स्वँय को मुक्त करना होगा, इस एकाकी चिंतन के लिए ही समूचे विश्व को आइसोलेशन और लॉक डाऊन का समय दिया गया है।
जिस-जिस ने भी अपनी मैं के चलते, किसी भी निरीह प्राणी पर कोई भी ज़ुल्म किया है, आज प्रकृति सबसे अपना ऋण लौटाने के लिए रौद्र रूप धारण करके आई है।
चाहे किसी ने बलात्कार किए हों चाहे भ्रष्टाचार किए हों, चाहे परिवार में राजनीति खेली हो चाहे सामाजिक सँबँधों में, चाहे व्यापार में स्वार्थी समीकरणों के खाते बनाए हों, या फिर मानसिक अनुबँधों में, चाहे अपना वर्चस्व क़ायम रखने के लिए परमाणु-शक्ति से लैस देश रहे हों, चाहे जैविक-शक्ति से, इस समय प्रदूषित मानसिकताओं के समस्त कीटाणुओं का सफ़ाया होकर रहेगा।
इतिहास गवाह है कि जब-जब भी मानव जाति ने प्राकृतिक सँतुलन को अपनी मैं के अत्याचार से असँतुलित करने की कोशिश की है तब-तब प्रकृति ने मानव जाति को अपने मौन वात्सल्य की ताक़त का परिचय देकर समाज को आइना दिखाया है।निस्वार्थ प्रेम की प्रतीक प्रकृति आज समूचे विश्व को निस्वार्थ एकता की राह पर ले ही आई। तभी तो आज समूचे विश्व में वायरस ग्रस्त रोगियों को न चाहते हुए भी, एकजुट होकर निस्वार्थ सेवा का ही सबक सिखाया जा रहा है।
हर बेबसी, हर ज़ुल्म का अँत करने के लिए प्रकृति ने अपनी वेदना के ज्वालामुखी को महामारी के रूप में प्रकट करके आज समूचे विश्व को उसकी औक़ात दिखाई है।
भयभीत और सँक्रमित लोग बदहवास से इधर -उधर छुपते फिर रहे हैं, जिनकी वजह से ये महाविनाशक वायरस फैलता ही जा रहा है।ये तो सच है कि ईश्वर की मर्ज़ी के बिना कभी एक पत्ता भी नहीं हिल सकता।ज़रा सोचिए कि आज सारे सँसार के लोगों के दिलों में अचानक ये कैसे डर की बदली छाई है जो बिना बरसात के ही लोगों को डर के पसीने से ही भिगोने लगी है।
दुनिया में किसी न किसी समय पर कोई न कोई वायरस आक्रमण करता ही रहता है। इसमें कुछ नई बात नहीं है। हाँ इस बार के वायरस के उपचार का रँग भी नया है और ढँग भी नया है।
पहले कभी कोई बीमार होता था तो मरीज़ के चारों तरफ तीमारदारों की भीड़ लग जाती थी। लेकिन इस बार की ये महामारी अपने मरीज़ों के लिए Isolation यानि एकाँत का उपहार लेकर आई है।
ज़रा सोचिए –
अब तक सारे मुल्कों को नाज़ था अपने अपने परमाणु पर
सारी कायनात क्यों बेबस हो गई एक छोटे से कीटाणु पर
ज़रा सोचिए –
भीड़ का हिस्सा बनकर हर कोई भेड़चाल चल रहा है।हर कोई एक दूसरे को उसकी ज़िम्मेदारी समझाने के लिए तत्पर है, लेकिन खुद कोई भी ज़िम्मेदारी उठाना नहीं चाहता।कोई चीन को कोस रहा है तो कोई जमातियों को कोस रहा है।अपने ही घर में नज़रबँदी के फ़रमानों से परेशान लोग एक-दूसरे के सम्मान का क़ायदा पढ़ने की बजाय अब भी अपनी मैं के इल्म का ग़रूर पाले बैठे हैं।
कुल मिलाकर सब एक दूसरे से सुनी सुनाई बातों पर बहस कर रहे हैं लेकिन असल मुद्दा अभी तक किसी की पकड़ में ही नहीं आया।
दरअसल इस प्राकृतिक आपदा का एक आध्यात्मिक पहलू भी है जिस पर अभी तक किसी का ध्यान ही नहीं गया। इस समय नाराज़ प्रकृति, समूचे विश्व की मानव जाति को एक ज़िम्मेदार इँसान बनाने के लिए केवल इँसानियत की ही राह पर चलने की अपील कर रही है।
प्रकृति ने हम सभी को पाँच तत्वों – हवा पानी अग्नि आकाश और धरती की निस्वार्थता के गुण दिए हैं।जैसे प्रकृति बिना भेदभाव किए सब पर अपना निस्वार्थ प्रेम लुटाती है, उसी तरह प्रकृति अपना ऋण वसूलने के लिए, मानव जाति से भी समभाव और परस्पर निस्वार्थ प्रेम की उम्मीद करती है।हमें जन कल्याण के उद्देश्य के लिए धरती पर भेजा गया है।
लेकिन सारे वर्ल्ड की हर एक कँट्री ने एक दूसरे पर अपना वर्चस्व और स्वामित्व क़ायम करने के लिए, परमाणु और हथियारों की खाप इकट्ठा कर ली।कहीं शिक्षितों की अशिक्षित जमात की कैक्टस उग आई तो कहीं मजहब के नाम पर मारकाट होने लगी। कहीं जातिवाद के पँगे सर उठाने लगे तो कहीं भ्रष्टाचार के दँगे जनता को सुलगाने लगे।
कारण सबका एक ही रहा कि कैसे दूसरों पर राज किया जाए। लेकिन निवारण अब तक किसी के भी हाथ नहीं आया।ये तो महज़ एक वायरस है जो कुछ समय के बाद चला जाएगा, लेकिन ये अपने पीछे समूची मानव जाति के लिए एक नया इतिहास गढ़ कर जाएगा, जिसे सदियों तक दोहराया जाएगा।
ये प्रकृति से खिलवाड़ का ही नतीजा है जो आज खुद प्रकृति ने महामारी के रूप में अपना आक्रोश जताया है। जिसमें निष्पक्षता और समभाव से सारा वर्ल्ड आज प्रकृति के प्रकोप की गिरफ़्त में आ गया है।
ज़रा सोचिए तो, ये लॉक डाऊन, ये आइसोलेशन और ये सोशल डिस्टैंसिंग जैसी अजीबोग़रीब तरकीब मानव जाति पर क्यूँ लागू की गई है।
कुछ लोग इस अजीबोग़रीब स्थिति से डरे हुए हैं तो कुछ असमँजस में हैं। किसी को समझ नहीं आ रहा है कि करें क्या?
सबसे पहले तो इस वायरस से डरें नहीं, इसका सामना करें और अपने आपको एकाँत में ले जाएँ।
कुछ लोग अकेलेपन के डर से परेशान होकर अपनी बीमारी छुपा रहे हैं, इसे छुपाएँ नहीं, बस एकाँत में रहकर इस वायरस को फैलने से रोकने में अपना सहयोग दें।
अपने अकेलेपन को अपने एकाकीपन में बदल डालें और सकारात्मक चिंतन करें कि अलगाववाद के वायरस की कड़ी को तोड़ने के लिए आज समूची मानव जाति को प्रकृति ने एकसाथ नज़रबँद करने की सज़ा नहीं दी है, बल्कि तमाम रिश्तों को क़रीब से समझ कर फिर एक बार मुस्कुराती हुई, साझी और सुलझी हुई जीवन शैली की सँभावना पर विचार करने का एक सुनहरा अवसर दिया है।
आज हर घर-परिवार में कई अनदेखी दीवारें हैं, हर रिश्ते में कई दरारें हैं, हर इँसान एक दूसरे पर अपना स्वामित्व चाहता है, हर देश दूसरे देशों से आगे निकलने की होड़ में बेचैन है।
आज सारा सँसार एक छोटे से वायरस से डरा हुआ है, जिससे बचने के लिए किसी मँदिर मस्जिद गिरजे या गुरुद्वारे का दरवाजा नहीं खुला है, जहाँ जाकर कोई भी
किसी भी भगवान के आगे कोई अपील, कोई अर्ज़ी, कोई विनती नहीं कर सकता।
अपने ही अँदर प्रज्वलित प्रभु-प्रेम की लौ से समस्त सँसार की सँक्रमित मानसिकताओं की कालिमा को धोने का इससे बेहतर कोई अवसर नहीं मिलने वाला।
ज़रा सोचिए हम सब जो कि परम पिता परमात्मा का ही अँश हैं, क्या एकजुट होकर एक दूसरे से निस्वार्थता का सँबँध नहीं निभा सकते।
चार दिन की ज़िंदगी है बँधुओं मेरी इस बात पर ग़ौर करना
परस्पर प्रेम की डोर से बँध जाओ बाकी सब इग्नोर करना
✍️