सर्वप्रथम तो मैं गर्व के साथ लेखिका गीतांजलि श्री को बुकर पुरस्कार प्राप्त होने की बधाई देती हूं, नमन करती हूं।
यह उपन्यास “रेत समाधि “2018 में हिंदी में प्रकाशित हुआ था तब इसकी अधिक चर्चा नहीं थी किंतु 375 पेज का उपन्यास अंग्रेजी में अमेरिका में रहने वाली लेखिका अनुवादक डेजी राकवेल द्वारा अनुवादित होने के बाद लंदन में बुकर पुरस्कार के लिए सम्मिलित हो सका,
किंतु बात केवल अनुवाद की नहीं है उपन्यास के कथानक की है यदि कथानक में दम न होता तो अनुवाद का भी महत्व न होता। यह बात भी सच है कि यदि अनुवाद मैं भी उतनी ही मार्मिकता न होती है तो भी उपन्यास की वखत कम हो जाती । डेजी रॉकवेल नहीं ने भी बड़ी शिद्दत से अनुवाद कर इसमें अपनी आत्मा उड़ेल दी है, वह भी प्रशंसा और सम्मान की पात्र हैं
इस उपन्यास में जहां भारत की व्यवस्थाओं को समेटा गया है वहीं एक स्त्री के दर्द को उकेरा गया है और वह भी जिज्ञासु शैली और शब्दों को बिना किसी औपचारिकता के स्वतंत्र अभिव्यक्ति देकर।
रेत समाधि, उपन्यास ” टूम आफ सैंड”
नाम से अंग्रेजी में अनुवादित होकर बुकर पुरस्कार की लिस्ट तक पहुंचा जो लंदन में और आयरलैंड मैं दिया जाता है,प्रश्न यह उठता है कि यदि यह अनुवादित नहीं होता तो क्या यह इस सम्मान की श्रेणी के लायक नहीं था कुछ लोगों का कहना है की पुरस्कार रेत समाधि को नहीं ” टूम आफ सेंड” को मिला है ।उन्हें विचार करना होगा कि अनुवाद महत्वपूर्ण है किंतु मूल कृति के बिना कैसा अनुवाद ? कथन में यदि विशेषताएं ना होती तो अनुवाद का भी कोई तात्पर्य नहीं था ।
गीतांजलि श्री को मिलने वाला यह सम्मान भारत का वैश्विक सम्मान तो है ही,सब हिंदी भाषियों के लिए गौरव और गर्व का विषय भी है,जो विश्व पटल पर हिंदी की साख को मजबूत करता है।
ऐसा नहीं है कि हिंदी में पहली बार अच्छा लिखा गया हो, पर अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गीतांजलि श्री जी को यह पुरस्कार मिलना लाजमी है इसके पहले भी उन्हे कई बड़े पुरस्कार मिल चुके हैं।उनका सारा लेखन विशेष श्रेणी में ही आता है क्योंकि वह बौद्धिकता के साथ संवेदनशीलता का संप्रेषण करता है्।
अवश्य ही और भी अच्छे लिखने वाले भी होंगे किंतु इसे हिदी की विडंबना ही कहेंगे न तो वो अनुवादित हो पाता है और ना वहां तक पहुंच पाता है। आज से सौ वर्ष पहले रविंद्र नाथ टैगोर जी की पुस्तक गीतांजलि को भी नोबेल पुरस्कार मिला था किंतु वह भी अंग्रेजी में अनुवादित हुआ था,। अनुवाद के बिना यह विश्व स्तरीय पुरस्कार संभव नहीं है।
विश्व की अनेकों भाषाओं की पुस्तकें इस पुरस्कार के लिए पहुंचती हैं जिनमें से तेरह पुस्तकों में चयनित हुआ है यह उपन्यास ।विडंबना तो यह है कि भारत में हिंदी को मातृभाषा का दर्जा मिलने के बाद भी आज तक इसे राष्ट्रभाषा नहीं बनाया जा सका क्योंकि देश के अंदर ही भाषा को लेकर खींचातानी है।
आज गीतांजली श्री को बुकर पुरस्कार मिलने से कितने लोगों को यह सम्मान पच नहीं रहा है कहीं जलने की बू भी आती है तो कहीं कुंठाएं मुखर हो रही है।किंतु यह तो इंसान की प्रवृत्ति है और विवाद और आलोचनाएं तो चर्चा को विस्तार देती हैं इसलिए यह भी जरूरी है।
जैसा कि कबीर कहते हैं –
निंदक नियरे राखिए ,आंगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय
आलोचना परिपक्वता लाती है यह तो सुखद पहलू है ।गीतांजलि श्री के इसके पहले भी चार उपन्यास और कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, वह रिश्तो के अंतर्मन की कथाकार हैं एक चुनौती जैसा होता है उनका लेखन,अंतरंग में उतर कर उनकी रचनाएं बाहर के परिदृश्य की कई परतें खोलती हैं जिसमें रिश्ते समाज पशु पक्षी नदी आसमान तारे स्त्री मन की विडंबना उजास ,ऊर्जा आत्मविश्वास के साथ राजनीति के दांव पेंच सभी कुछ समाहित होता है ।लेखिका की अपने मन की दुनिया है जो स्त्री की संवेदनाएं उनकी सोच, वर्जनाएं, सीमाएं पूरी शिद्दत के साथ रंगीन कैनवास पर उतारती हैं।
बंटवारे के दर्द के साथ रिश्तों की सरहदों के बीच अपनी जमीन खोजता हुआ यह उपन्यास, रोजमर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं को लेकर अपनी गति में चलता हुआ आधुनिक भाषा के साथ साधारण बोलचाल की भाषा जिसमें नए शब्दों के प्रयोग के साथ उन शब्दों का भी प्रयोग है जो अब प्रायः गायब हो गए हैं भी प्रयुक्त किए गए एक हैं ,मुहावरे लोकोक्तियां के साथ काव्यात्मक शैली के कारण नदि की तरह बहाव है लय है ,गति है इसके साथ ही रोमांचक शैली है जो अधिक पठनीय बनाती है ।कहीं-कहीं यथार्थ की जटिलता को सरल ना करने का दुर्बोध भी, आक्रामकता भी, अंधकार है तो उजास की तड़प और उम्मीदें भी हैं। उपन्यास का कोई भी अंश कहीं से भी पढ़ लिया जाए तो भी सुखद व अपना सा महसूस होगा यही विशेषताएं इस उपन्यास को बुकर पुरस्कार तक ले जाने के लिए कम नहीं है।
उपन्यास में में माई के किरदार के रूप में उम्र दराज स्री के माध्यम से ऐसा कथानक है जो सन् 1990 के दशक में भारत की सांप्रदायिक बदलाव को बड़ी सूक्ष्मता से लिखता है
जैसे यह वाक्य-“उस सड़क ने देखा दो औरतें उस पर चली जा रही है इस सड़क पर घूमते मंडराते इस मुल्क से उस मुल्क तक नदियां देखी जिनके पानी में लाल रंग डूबते सूरज का नहीं समकालीन स्थितियों का है।”बंटवारे की एक टीस एक पीड़ा के दर्द के साथ प्रकृति को उनकी गवाही का माध्यम बनाना लेखिका की संवेदनशीलता , सूक्ष्म दृष्टि प्रकृति प्रेम की अभिव्यक्ति कर रहा है।
दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण उपन्यास की आलोचनाएं होना भी स्वाभाविक है किंतु हृदय की गहराइयों से अनुभूत कर गहन चिंतन के द्वार से लेखन में उतरने वाला लेखक इन वर्जनाओं से कभी विचलित नहीं होता वह जानता है कि बहुतों को तो यह सम्मान पचता नहीं है बहुतों का नजरिया भी अलग होता है और बहुतों को बिना जाने समझे आलोचना की आदत सी होती है किंतु आलोचनाओं को चुनौती मानकर सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर लेखक दुगना उर्जित हो जाता है।
उपन्यास से प्रेरणा लेना चाहिए और हिंदी भाषा की कमियों को दूर करते हुए उसे विश्व में प्रतिष्ठित करने और बुकर पुरस्कार जैसा सम्मान हिंदी भाषा और भारत में रखे जाने के लिए प्रयास करना चाहिए। एक उपलब्धि दूसरी उपलब्धियों के लिए चिंतन और विकास का मार्ग प्रशस्त करती है, तो क्यों हम न हिंदी भाषी, अन्य भाषाओं को भी सीखें और उन्हें हिंदी में अनुवादित करने की सामर्थ रखें।अनुवाद को महत्व दें और हिंदी की कृतियों को अनुवाद का अवसर।
आ.गीतांजलि श्री के बुकर पुरस्कार से प्रेरणा लेकर क्यों न हम संकल्प लें कि शीघ्र ही ऐसी व्यवस्था हम भारत में कर सकें कि सभी भाषाओं की पुस्तकें भारत में आए और हम उन्हें हिंदी में अनुवादित करवाएं।इसके लिए आवश्यक है हिंदी के विस्तार को समझना उसे शीर्ष पर रखते हुए अन्य भाषाओं को भी सीखना।
यदि ऐसी व्यवस्थाएं हो सकी तो जरूर हम कुछ वर्षों के प्रयास से ही हिंदी में बुकर पुरस्कार जैसी व्यवस्था कर सकेंगे।
आवश्यकता है हिंदी से प्रेम करने वाले संकल्पित हों ,एकजुट होकर प्रयास करें, सरकार से सहयोग तो लें पर पूरी तरह सरकार निर्भर ना हों क्योंकि उनकी अपनी परिसीमाएं हैं।
ऐसे पुरस्कार व्यक्तिगत होते हुए भी विश्व में संपूर्ण देश की साख बढ़ाते हैंइनसे भारत की संस्कृति रीति-रिवाजों और परंपराओं से विश्व में हमारा परिचय विकसित होता है जो विश्व पटल पर भारत की संस्कृति के सराहनीय परिदृश्य को साकार करता है।
हिंदी को तुच्छता के संसार से निकालकर इसके वास्तविक विस्तृत स्वरूप को निखारने से मातृभाषा हिंदी का सम्मान देश में ही नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ में मिले तीसरे दर्जे के स्थान पर उसे पहले दर्जे पर लाने किया जा सकता है लेकिन सबसे पहले इसे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना होगा।
लेखिका -मीना गोदरे ,अवनि ,इंदौर