एक
धुँआते ही न रहो सुलगके जलो दहको
जलाके ख़ाक करो हर सियासती छल को
घुन गये बांस- बत्ते, धसक रहीं दीवारें
वक़्त रहते बचा लो टूटते- ढहते घर को
जो आहे- दीनो- बेकुसूर कहर बरपा दे
बचा न पाओगे अपने ग़ुरूर के घर को
लहू भाई का सगे भाई के लहू से ज़ुदा
दे गैर का खूं ज़िंदगी इक मरते बशर को
राजा को संझा आरती से जब मिली फुर्सत
‘ महरूम’ आया देखने वह जले शहर को
दो
किसी को चाहे यकीं हो न हो मगर है मुझे
हर एक शै में तू ही आ रहा नज़र है मुझे
मुझे तुम अपने नज़रिये से जैसा देखते हो
ज़ुदा कुछ और ही देखे है कोई नज़र मुझे
रौ- ए- ज़ज़्बात में रुख अपना बदल देते हो
तुम्हारे चालो- चलन की हर इक ख़बर है मुझे
उसकी पहचान मुझसे अलग हो नहीं पाई
जिसने फेंका जड़ो- ज़मीं से काटकर है मुझे
अपनी साँसों में बसाकर मैं उसे रखता हूँ
आंखों में रक्खे वो काजल सा आँजकर है मुझे
हिन्दू संकट में नहीं खौफ में मुसलमां नहीं
इस सियासत ने रखा तुझे डराकर है मुझे
जाने क्यूं मौत भी आती नहीं मुझे ‘महरूम”
ज़िंदगी तूने रखा बोझ बनाकर है मुझे
तीन
तुम्हें पता क्या हमको कैसे जीना पड़ता है
चुप रहना और घूँट खून का पीना पड़ता है
डर लगता है बच्चे कोई फ़रमाईश न कर दें
जब त्यौहारों वाला कोई महीना पड़ता है
न्याय नहीं मिलता उत्पीड़ित को जब बरसों तक
विधि- विधान का चेहरा बहुत मलीना पड़ता है
वाज़िब मोल न आंकें क्यूं हम अपनी फसलों का
हमको अपना करना खून- पसीना पड़ता है
कुछ जख्मे- दिल खास तरह के होते हैं ‘महरूम’
जिन्हें सिसकियों के धागों से सीना पड़ता है
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