एक एहसास लिए मोनू से मिलने गई थी मैं ,लेकिन जब वापस जाने के लिए निकली तो अपने आप को कटी पतंग सी महसूस कर रही थी।अपने ही बोझ से ढह रही थी में क्योंकि प्यार की पतंग को मिलता हवा का सहारा आज खत्म हो चुका था।गिरते गिरते कहां पहुंचाया था प्यार के इस खेल, हां खेल हो तो था जो मोनू ने मेरे साथ खेला था।
जब पहली बार मिले थे तब मैं उसकी दुकान पर अपने अंतर्वस्त्र की खरीदारी करने गई थी और जो खास तरीके से वह मुझे एक के बाद एक नई डिजाइन दिखा कर उससे मिलने वाली सहूलियत के बारे में बता रहा था तब एक कवि सा लग रहा था मुझे,अनायास ही उसकी मीठी बातों ने मेरे मन में उसके लिए कुछ कोमल भावना, जो एक नवयुवती के मन में आना स्वाभाविक था,उसे जन्म दे ही दिया।मेरी खरीदारी तो खत्म हो ही गई थी और कम से कम ६ महीने तक मोनू की दुकान पर जाने का अवसर प्राप्त नहीं होना था।लेकिन उसकी दुकान के सामने से निकल भी जाऊं तो भी दिल की धड़कनें तेज हो जाती थी और उसकी एक जलक पाने के लिए निगाहें उसकी दुकान का कोना कोना टटोलती थी। बेकरारी ही तो थी जो समय के साथ ऐसे बढ़ती जा रही रही थी कि पूछो ही मत।अब बहाने से सखियों के साथ,भाभियों के साथ कहो तो सभी पहचानवाली महिलाओं के साथ जा कर उसकी दुकान की मुलाकातें बढ़ती ही जा रही थी।और एकदिन उसने भी मेरे प्यार को प्रतिभाव दे ही दिया, उस मुस्कुराहट को कभी भी भूल नहीं पाई थी मैं।भरे भरे होटों की हल्की सी हलचल जो मूछों के नीचे से जांकती थी और मेरे एहसास को जकज़ोर ने का काम कर रही थी।और आंखे जैसे अनकहे बोलों को वाचा दे रही थी।मेरे पूरे अस्तित्व को हिला के रख दिया था उस वाकये ने।उसकी दुकान के बाहर तो जाना ही था क्योंकि भाभी ने रकम चुकता कर ही दी थी।और कई दिनों तक उस मुस्कान और आंखों ,दोनों ने मेरे मन को आंदोलित रखा और एकदिन मैं बस की राह देख कर बस स्टैंड पर खड़ी थी और उसकी बाइक न जाने कहां से आया और सामने खड़ा हो गया।मैं तो अवाक सी उसे देखती रही लेकिन उसकी आवाज सुन मुझे वास्तविकता का एहसास हुआ।वह पूछ रहा था कि वह मुझे कही छोड़ दे सकता था। और बिना कुछ सोचे उसके पीछे बैठ गई और उसने बाइक चला दी।स्वर्ग सा एहसास लिए उस पर पूरा भरोसा लिए मैं जैसे उड़ी जा रही थी प्यार के हिलोरें लेती हवा के जुलों में जुलती पतंग की तरह।उसने एक रेस्टोरेंट के पास बाइक खड़ी कर पूछा था कुछ और बिना सुने ही हामी में सर हिला दिया था मैने ,अंदर जा के एक कोने वाली टेबल पर बैठ उसने पूछा था कि मैं क्या लूंगी पर मैंने उसकी पसंद को अपनी पसंद बताई और उसने ऑर्डर भी दे दिया।और कितनी देर हम वहां बैठे ये भी याद नहीं हैं मुझे,बस समय को ठहर जाने की इल्तज़ा करती हुई उसके सानिध्य का आनंद लेती रही।और जो स्वप्न सा समा था उसे तो पूरा होना ही था और हो गया।मैं घर पहुंच अपनी मस्ती में अपने कमरे में जा उन्ही लम्हों को फिर से जीने की कोशिश करते करते सो गई। मां को खाना नहीं खाने की सूचना मैने आते ही दे दी थी।बस अब तो मिलाकातों का सिलसिला ऐसा चला कि पूछो ही मत।रोज ही घोड़े पर सवार आते हुए अपने राज कुमार को मिलने परी सी सजके निकल पड़ती थी।अब तो न कॉलेज की फिक्र थी और न ही पढ़ाई की।प्यार के अविरत झरने में बहती जा रही थी।कब साल निकल गया पता ही नहीं चला।इम्तहान हो गए, द्वितीय दर्जे में उत्तीर्ण होने का कोई मलाल नहीं था ।अपने प्रथम दर्जे को अपनी प्रीत के लिए कुर्बान कर चुकी थी मैं।लेकिन घर वालों से ये बदलाव को नहीं छुपा सकी थी मैं।एक रविवार जब सभी घर में थे तो मां ने बात छेड़ दी कि मामीजी के भाई का बेटा बड़ा ही लायक था एमबीए कर अच्छी नौकरी लग गई थी तो मेरे रिश्ते की बात चलानी चाहिए।और पापा ,भैया भाभी सभी ने भी हामी भरदी लेकिन मेरी राय पूछना जरूरी नहीं समझा।उन्हों ने मामीजी को फोन लगाया और बात आगे बढाने के लिए बोल दिया।मैं मन ही मन कुढ़ती हुई अपने बिस्तर पर जा लेट तो गई लेकिन नींद कोसों दूर थी।अपने प्यार के भविष्य के बारे में सोचती हुई छत पर नजरें टिकाए पड़ी रही थी।अपने प्यार के एहसासों को किसी अजनबी से सांझा करने की बात सोच कर ही बदन में थरथराहट सी आ जाती थी।अपने हमसफर के रूप में जहां मोनू को पदानवित किया था वहां कैसे किसी और को विराजित कर पाऊंगी ,यही प्रश्न बार बार खाए जा रहा था मुझे।कब सुबह हुई उसका पता ही नहीं चला।लेकिन सारी रात जागते हुए निकलने की वजह से सर दर्द से फटा जा रहा था।बाथरूम में जा फ्रेश होने की सोची और चल दी बाथरूम की और तो एक चक्कर सा आ गया लेकिन दीवार का सहारा ले संभल तो गई लेकिन एक और चीज भी समझ में आ गई कि ये जो हो रहा था उसे सहना बहुत ही मुश्किल होगा।बाथरूम मे गई तो अपना चेहरा देख हैरान सी रह गई,लाल सूजी हुई आंखे और पीला पड़ गया चेहरा,लग रहा था सारी रात रोने में ही काटी थी मैंने।
फ्रेश हो चाय नाश्ते के लिए मां ने पुकारा तो चली गई लेकिन न ही चाय अच्छी लगी और न ही नाश्ते का स्वाद आया।चुप चाप उठ ११ बजने के इंतजार में अखबार में मुंह गाड़े बैठी रही।कसम हैं अगर अखबार का एक शब्द भी पढ़ा हो।अपने अतीत की यादें जकजोर रही थी और दिलों दिमाग में एक भावनात्मक असुरक्षा की भावना उमड़ रही थी।समय इतना होले चल रहा था कि ११ बजने में युग बिता दिए थे।मोनू का घर तो देखा नहीं था सिर्फ दुकान ही देखी थी तो वहीं जा के मिलना था।ग्यारह बजते ही बहाने से घर से निकल मोनू की दुकान पर पहुंची तो वही मुस्कान के साथ मेरा स्वागत किया ।लेकिन उस मुस्कान के जादू का असर नहीं हुआ था।कुछ औरतों को वह अपनी कला में निपुण सा अपनी बिक्री कला को आजमा रहा था तो मैं एक और पड़ी कुर्सी पर बैठ गई और उसका काम खत्म होने का बेसब्री से इंतजार करने लगी।जब वे महिलाएं गई तो उठके उसके नजदीक गई तो उसे भी मेरी हालत देख कर चिंता हुई और पूछ लिया कि क्या हुआ था मुझे।और जो सब्र का बांध बांधे इतनी देर से बैठी थी वह भर भराके टूट गया और फफक फफक के रोने लगी तो मोनू भी थोड़ा गभरा उठा और जब मैने मेरी शादी के बारे में बताया तो उसे जरा भी धक्का नहीं लगा, सामान्य भाव से बोला कि अगर लड़का अच्छा है तो मुझे रिश्ते को स्वीकार लेना चाहिए।सुनकर मेरी हालत तो और खराब हो गई ,कैसे कह सकता था ये बात वह,परेशान सी उसकी और डरी हुई हिरानी सी मैं देख रही थी और वह मुझे स्थितप्रज्ञता से देख रहा था। फर्क समझ आया मुझे मेरे प्यार और उसके व्यवहार के बीच का और मैने उसे सालभर के साथ और मुलाकातों का,इश्क के उन लम्हों का भी वास्ता दिया तब उसके मुंह से जो शब्द निकले वह जानलेवा ही थे।उसने कहा कि उसने कभी भी अपने मुंह से शादी का वादा किया नहीं कहा था ये तो सिर्फ दोस्ती का रिश्ता था, वह खुद बताने वाला था कि उसके लिए भी रिश्ते आ रहे थे और एक लड़की उसे पसंद भी आ गई थी।वैसे उसने ७ ,८ लड़कियों से मुलाकात भी की थी।ये सब मेरे लिए चौकाने वाली बातें थी ।मुझे उसके इरादों का सही मायने समझ आ गए थे।सिर्फ खेल रहा था मेरे जज्बातों से और मेरे शरीर से भी।टूटी हुई सी मैं उठी अपनी गलती की सजा भुगत ने के लिए अपने आप को तैयार कर उसकी दुकान से नीचे उतर गई।थे
ठगा सा महसूस कर रही थी मैं अपने आपको।घर पहुंचने पर मैंने भी निर्णय ले लिया था कि जैसी भी हो अब मोनू के बिना जिंदगी बितानी ही होगी।शायद इसी में बेहतरी थी,अगर आगे जाके बेवफाई करता तो जिंदगी नर्क बन कर रह जानी थी।
शायद ईश्वर कृपा और बड़ों के आशीर्वाद से वह बहुत बड़ी बारबादी से बच गई थी।प्यार का जो जूठा फितूर उसके सर पर था वह उत्तर गया था।घर आके वह नहाने चली गई और अपने तन को मलमल के ,रगड़ रगड़ कर उसने उस फरेबी प्यार की छुअन को धो डाला।जब एक घंटे के बाद वह बाथरूम से निकली तो उसकी मां ने पूछ ही लिया कि बहुत देर लगी बाथरूम में,तो उसने बहुत ही मार्मिक जवाब दिया था, कि बहुत दिनों के मेल को धोने में देर तो लगती ही हैं न! मां कुछ समझी नहीं थी लेकिन सर हिला कर रसोई में चली गई।अब वह अपने आप को मुक्त महसूस कर रही थी।जब उसे प्रस्तावित लड़के को मिलने जाना था तो एकदम हल्के मुड़ में वह गई थी।और प्रस्तावित लड़का नमन उसे पसंद भी आया जो एक अच्छे व्यक्तित्व का धनी और संस्कारी भी था।अनायास उसे मोनू की हर बात में की गई जोहुकमी से तुलना कर बैठी और नमन से मिलने की उसे खुशी भी हुई।घर आकर उसने अपना हकारात्मक जवाब अपनी मां को दिया और बात आगे बढ़ी और कुछ महीनों में वह शादी कर अपने मनभावन के घर चली गई।कटी पतंग जिम्मेवार हाथों में आके सुरक्षित हो गई थी।
जयश्री बिरमी
अहमदाबाद