कई दिनों से भयंकर बीमारी के बावजूद भी नीलिमा का चेहरा बहुत सुंदर दिख रहा था। उसके पति राकेश और बेटे खुश थे कि शायद अब वह बच जाएगी। पिछले कुछ समय से फ़ेसबुक पर लिखने से उसके काफ़ी दोस्त बन गए थे और जिस अकेलेपन के कारण उसकी जान पर बन आई थी, आज उसे चाहने और दुआ करने वालों के कारण वह काफ़ी हद तक उस से छुटकारा पा चुकी थी। दिनभर कभी किसी दोस्त के, कभी फ़ेसबुक के कुछ देखे, अनदेखे भाई बहनों के फ़ोन आते रहते। जिंदगीभर प्यार को तरसी, तीन-तीन जवान बच्चों की माँ की उम्र में, इतना प्यार मिलेगा, और वो भी अपने घर नहीं, बाहर के अंजान लोगों से,नीलिमा ने कहाँ सोचा था? उसके चेहरे पर हर वक़्त छाई मुस्कान शायद इसका कारण होगी चूँकि अपना हर दुःख छिपाने की कला उसे बख़ूबी आती थी। आह…!! किसे पता था कि ये चमक दीपक के बुझने से पहले की तेज़ लौ साबित होगी। कहते हैं, प्यार की कोई उम्र नहीं होती? कब, कहाँ और किससे हो जाए, पता नहीं। रंजन उससे कई साल छोटा था, पर उसने नीलिमा में एक ऐसी प्राणऊर्जा प्रवाहित की, कि उसे स्वयं से प्यार हो गया । उसका ये कहना,” तुम कभी ख़ुद को अकेला मत समझना। मैं हर सुख दुःख में तुम्हारे साथ हूँ।” इन चंद शब्दों ने मानो उसे दीवाना बना दिया। अब वह आईना भी देखती तो अपने स्थान पर रंजन ही दीखता। दीवानगी का आलम ये कि सड़क पर चलते चलते वह उसके ख़्यालों में इस क़दर खो जाती कि एक बार पेड़ से टकरा गई और एक बार तो बस के नीचे आते आते बची। उसने जब इस बारे में हँसते हँसते रंजन को बताया, तो वह डर गया और उसने किनारा करना उचित समझा, ये सोचे बिना कि भावुक नीलिमा पर क्या गुज़रेगी? दिल्ली के मैक्स अस्पताल का साफ़ सुथरा कमरा। बाहर 25-30 लोग नम आँखें लिए। जिसे पता चलता भागा चला आता। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि इतनी हँसमुख और ज़िंदादिल नीलिमा भीतर से इतनी खोखली होगी। अचानक ECG का ग्राफ़ सीधी रेखा प्रदर्शित करने लगा। डॉक्टरों ने नीलिमा को मृत घोषित कर दिया, किन्तु उसकी खुली आँखें अब भी दरवाज़े पर लगीं अपने रंजन की राह देखती हुईं मानो कह रहीं थीं, ” कागा सब तन खाइयो, चुन चुन खइयो माँस, पर दो नैना मत खाइयो, इन्हें पिया मिलन की आस।”
—“नीलोफ़र”–