लगे झरने नव छंद नेहिल,
पिघलता नील का आँगन है।
भींग रहा अवनि का आँचल,
सरस अंतर का प्रांगण है।
नैनो में मनुहार लिए,
व्यापा मौन दिशाओं में।
आस सिंचित रहती हर पल,
तरंगित सी आशाओं में।
मृदुल से दो बोल कहीं से,
कानों में रस घोल गई।
तार तरंगित सहसा करके,
पट अधर के खोल गई।
मंजुल सी फिर तान छिड़ ,
राग बनी अनजानी सी।
नैनों में अब लगी सिमटने,
मृदु स्वप्नों की मनमानी सी।
डॉ उषा किरण
पूर्वी चंपारण, बिहार