कविता मल्होत्रा (स्तंभकार, संरक्षक )
हर साल प्रतीकों के आधार पर हम सभी कुछ राष्ट्रीय और कुछ अँतर्राष्ट्रीय दिवस, कुछ वैश्विक और कुछ प्रतीकात्मक दिवस मनाकर अपने दायित्वों की इति श्री समझ लेते हैं।जिस भारतीय संस्कृति पर समूचा विश्व गर्वित होकर हमारे पारिवारिक संस्कारों के प्रति सम्मोहित होने लगा है, हम सभी उस संस्कृति की धज्जियाँ उड़ाने में किसी न किसी रूप में अपना योगदान दे रहे हैं।प्रगतिशीलता के नाम पर चाहे या अनचाहे हम सब पूरब की सभ्यता को पश्चिमी सभ्यता में रूपांतरित करने की किसी न किसी गतिविधि में शामिल हैं।आधुनिकता के नाम पर हम सबकी जीवनशैली में जो परिवर्तन आए हैं, उन बदलावों ने पारस्परिक संबंधों पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए हैं।अपनी आज़ादी और अपनी ग़ैर ज़िम्मेदाराना कमाई पर ग़ुरूर करती हर उम्र की पीढ़ी इतनी मग़रूर हो गई है कि अपने दायित्वों से पल्ला झाड़ कर बैंक बैलेंस बढ़ाने को ही अपने जीवन का लक्ष्य मान बैठी है।एक दूसरे की मदद करने की बजाय अपनी कमाई के नशे में चूर होकर रोबोटिक मशीनों से दिनचर्या के कार्यकलाप पूरा करने के लिए पढ़े लिखे ग़ुलाम पैदा कर रही है।ग़ुलामी चाहे किसी व्यक्ति की हो चाहे किसी आदत की, मनुष्य को रखती कारावास में ही है।अब कोई माणिक जड़ी ज़ंजीरों पर गर्वित होकर ही शेखचिल्ली सा जीवन गुज़ारना चाहे तो उसका मानसिक रूपाँतरण केवल और केवल रब की रहमत से ही हो सकता है।मानव देह उस तहख़ाने की चाबी है जिसमें एक ऐसे कीमती माणिक का नूर है जिससे समस्त जगत प्रकाशमान है, लेकिन जिसे देखो अपने घर को सजाने के लिये आँखें चुँधियाने वाली बाज़ारू लाइटें ख़रीदने में लगा हुआ है।नज़र फिर भी धुँधली ही है, क्यूँकि हर कोई दिल के संबंध दिमाग़ से निभाने की चालें चलने लगा है।जैविक रसायनों की कमी के कारण मानव देह में किसी भी रोगाणु के हमले को नाकाम करने की क्षमता नहीं रह जाती।ये तो जग ज़ाहिर है कि देह से जुड़े तमाम सुख क्षणिक हैं और ये भी लगभग हर जागरूक व्यक्ति का निजी अनुभव है कि मानव जीवन क्षणभँगुर है, फिर भी आख़िर ऐसी किस चीज़ का, क्या लालच है जिस पर स्वामित्व के लिए समूची मानव जाति ने मानवता को ही दाँव पर लगा रखा है।
न किसी से जीतने की आकांक्षा हो
न किसी को हराने की अभिलाषा हो
हर ज़ुबान पर केवल प्रीत की भाषा हो
फ़ासले तब घटेंगे जब दिल प्रेम प्यासा हो
बाज़ार में बिक्री के लिए लाई जाने वाली फसल पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे हैं।पुश्तैनी खेतीबाड़ी करनेवाले घरानों पर से भी नस्लों के खरे उतरने का भरोसा ही उठता जा रहा है।मृत्यु शैय्या पर ख़ाली हाथ गए सिकंदर का संदेश भी केवल शाब्दिक अनुवाद की परिधि में ही सिमट कर रह गया है महामारी के कीटाणु भी हर दफ़ा रूप बदल-बदल कर मानव मन को झकझोरने वाली दस्तक दे रहे हैं, लेकिन अनाहद नाद की धुन सुनने की बजाए मानव जाति बाज़ारू बीट पर ताँडव करने में मग्न है।आँखों में तहज़ीब के काजल की जगह मग़रूर रंगीनियाँ श्रृँगारित होने लगीं हैं।दायित्वों कीं तमाम पोटलियाँ कदमों तले रौंदती आधुनिक पीढ़ी ने अधिकारी होने की बजाय अधिकारों की माँग पर दावे ठोंकते हुए आँगन के दरख़्तों पर फ़िज़ूल जगह घेरने का इल्ज़ाम लगाकर कटघरों में खड़ा कर दिया है।दूषित पोषण पाने वाली नस्लें अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए नशीले इम्यूनिटी बूस्टर की खुराकें ले रहीं हैं।एक ही पेड़ के पत्ते परस्पर बैर भाव के कारण अपनी ही शाखाएँ काटने पर उतर आए हैं।मानसिक, शारीरिक, भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक वातावरण के दूषित होने का ख़तरा समूची मानव जाति को बार-बार जागृत करने के लिए प्राकृतिक आपदाओं के रूप में इशारे दे रहा है,अब ये हर किसी का निजी दायित्व बनता है कि केवल आर्गेनिक अन्न खाकर खुद को महफ़ूज़ समझ बैठने की गल्ती न करें बल्कि अपने नज़रिए को आर्गेनिक बनाएँ ताकि मानव जीवन का उद्देश्य पूरा करने के लिए खुद को पहचान सकें। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि – “अकाल अगर “अनाज” का हो तो “मानव मरता है, किंतु “अकाल” अगर “संस्कारों” का हो तो मानवता मरती है।मानवता जीवित रहे इसके लिए हमें ये समझना ज़रूरी है कि चंद उधारी की साँसों पर इतराने वाले रोबोटिक परिंदे दूषित हवाओं में साँस नहीं ले पाएँगे,हमें प्रकृति की मौन वेदना को समझना होगा और दूसरों को बदलने की उम्मीद रखने की बजाए खुद को बदलना होगा।
सब में रब को देख पाएँ, दिल दुखाना गुनाह रहे
वात्सल्य की कुंजी हो और हरि मिलन की चाह रहे
परस्पर भेदभाव मिट जाएँ समूची सृष्टि से निबाह रहे
अब के ऐसा वसंत खिले आर्गेनिक हर एक निगाह रहे