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बाज़ार

अंजू और नीना हफ़्ते भर का सामान लेने बाजार में चक्कर लगा रही हैं । दोनों पुरानी सहेलियां हैं इस लिए एक बेफ़िक्री सी दोनों पर छाई हुई है । बेफ़िक्री और संग – संग मौज मज़ा भले हो मगर सौदा लेने में दोनों की ओर से अभ्यस्त सतर्कता बरती जा रही है । अभी अभी दोनों कपड़ों के बड़े से शो रूम से खिलखिलाती हुई निकली हैं । यहां बड़ा वक्त लग गया उनको मगर परवाह नहीं । सेल का बोर्ड देख पहले से कोई प्लान न होने पर भी दोनों घुस गईं । बड़े ब्रांड के कपड़े सेल में उचित दाम के महसूस हुए । हालांकि मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग तो सेल में भी बड़े शोरूम्स में घुसने की हिम्मत नहीं करता । कहने को 50% तक कि सेल हो तो भी दाम सामान्य से कई गुना अधिक ही महसूस होते हैं । कभी कोई ग़रीब ऐसे शोरूम्स में घुस भी जाए तो उसे पहले दरबान और फिर सेल्समैन हीन दृष्टि से देख असहज कर देता है । अधिकतर तो बस बाहर के कांच से ही अंदर की चकाचौंध  देखते हैं । ख़ैर दोनों सहेलियां ट्रॉयल रूम में तसल्ली से जांच परख कर पसंद की कुछ ड्रेसेज लेती हैं । और बेझिझक कार्ड से दाम चुका सन्तुष्टि से सराबोर बाहर आती हैं । बाहर आते ही थोड़ी दूर जाने पर सड़क किनारे एक बुज़ुर्ग रोज़मर्रा के प्रयोग की छोटी – मोटी चीज़े सजाए बैठे हैं , बुज़ुर्ग 80 से कुछ ऊपर के ही लग रहे कमज़ोर से हैं पका हुआ रंग है इतनी धूप में समान के साथ बैठे बैठे कोई सुकुमार तो वैसे भी बना नहीं रह सकता फिर उनकी तो उम्र भी इतनी अधिक हो चुकी वैसे उनकी आंखें भावुक सी हैं हावभाव में एक शालीनता है । धूप , घाम , संघर्ष ;  रूप रंग भले छीन लें मगर मन की कोमलता बस दूसरे इंसानों का कटु व्यवहार , छल – कपट , धोखा , धूर्तता ही छीन पाता है मासूमियत का कत्ल करने की कला इंसानों के पास ही है । अंजू की नज़र पहले बाबा पर टिकी फिर अनायास वह उस समान की ओर खिंची चली जाती है । अंजू को अपनी ओर आता देख बाबा समान को व्यवस्थित कर अपनी कांपती सी आवाज़ बुलंद करते हैं हर माल तीस रुपये – हर माल तीस रुपये । नीना भी साथ हो लेती है हालांकि उस समान में नीना की ज़रा भी रुचि नहीं । यूं सड़क किनारे खुले में समान ले कर बैठे लोगों से सामान लेना उसको अच्छा नहीं लगता । किसी भी चीज़ का दाम कितना बढ़ा – चढ़ा कर बताते हैं । फिर कौन इनसे घंटों मोल भाव करता रहे । उधर अंजू ने एक चाय छानने की छलनी हाथ में उठा ली थी और दाम पे चिक – चिक शुरू हो गई थी बाबा बेचारगी में कह रहे थे बेटी बोहनी करनी है आज अभी तक कुछ नहीं बिका अच्छा तीस नहीं बीस ही दे दो , अंजू कह रही यह दस से ज़्यादा की नहीं हालांकि मन ही मन उसने छलनी के दाम बीस रुपये ही सोचे थे मगर इस तरह की दुकानों पर उसके अंदर मोलभाव करने का भूत से आ जाता और काम से कम कीमत पर ले लेने पर अलग ही स्तर की संतुष्टि महसूस होती उसने मुट्ठी में पहले ही छलनी के लिए छुट्टे बीस रुपये दबा रखे थे फिर भी वह आदतन दाम कम करवा रही थी चाहे 5 रुपये ही और कम हों क्या जाता है … अरे तू भी क्या चिक – चिक लगा रही है कितना टाइम वेस्ट करेगी , इन लोगों का ऐसा ही रहता मुंह देख कर थप्पड़ मारते हैं छोड़ ना ;  नीना ने अंजु के हाथ से छलनी छीन वापस समान के ढेर पर डाल दी और पलट कर आगे बढ़ गई । अंजू पशोपेश में अभी पलट ही रही थी कि सांप की पिटारी लिए एक महिला अचानक उस के सामने आ गई ,” माई नाग देवता वरदान देंगे तेरा सुहाग जिये बच्चे जियें तेरा घर खुशहाल हो…”

उसकी रटी रटाई दुआएं जारी हैं…उस से पीछा छुड़ाने की हड़बड़ाहट में छलनी खरीदने के लिए मुट्ठी में भींचा बीस का नोट भिखारिन की पिटारी में कुछ उस अंदाज़ से फेंकती है जैसे पल भर पहले नीना ने उसके हाथ से छुड़ा समान की ढेरी पर चाय की छलनी फैंकी थी। नीना कुछ कदम आगे बढ़ चुकी अंजू उसकी ओर तेज़ी से कदम बढ़ा रही। भिखारिन की पिटारी में चिल्लर और दस दस के नोटों के साथ बीस का नोट सर उठाए अलग ही चमक रहा है । सामान की ढेरी के दूसरी ओर बैठा बाबा सूनी नज़रों से उस नोट पर टकटकी लगाए है , उसकी आज बोहनी होते – होते रह गई ।

दीप्ति सारस्वत प्रतिमा

प्रवक्ता हिंदी

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