इलाहाबाद का नैनी इलाका कभी बंजर जमीन था जहां उपज के नाम पर कुछ भी नहीं था लोग सब्जी तथा फूलों का व्यवसाय करके अपना घर चलाते थे।उन खाली जमीनों पर करीब सत्तर के दशक में कुछ पूंजीपतियों की नजर पड़ी और उन्होंने उसे खरीदकर उनपर अपनी-अपनी फैक्ट्रियां बनानी चालू कर दीं। इससे दो फायदा हुआ एक तो लोगों को नौकरियां मिलीं और दूसरी उस बंजर जमीन का सदुपयोग हो गया।
वहीं के एक फैक्ट्री में मीतू के पिता भी काम करते थे। फैक्ट्री के कर्मचारियों के लिए फैक्ट्री के पास ही रहने के लिए काॅलोनी की व्यवस्था भी थी। जब कॉलोनी बस गयी तो फिर वहां स्कूल भी खुल गया जहां वहां के कर्मचारियों के बच्चों के पढ़ने की भी व्यवस्था हो गयी।
साल में दो तीन बार उस कारखाने में बड़े स्तर पर जलसा होता उसमें उस कारखाने में काम करने वाले सभी कामगारों के परिवारों के खाने-पीने तथा बच्चों के मनोरंजन के लिए तरह-तरह के प्रोग्राम रखे जाते। औरतें, बच्चे व बूढ़े सभी उस दिन पूरी कम्पनी घूमते, खाते पीते और फिर अपने घर लौट जाते। ऐसे ही आयोजनों में 26 जनवरी का भी उत्सव उस समय मनाया जाने वाला था । सभी लोग बड़े और बच्चे सभी खुश हो रहे थे।
मीतू तू कल रेस में भाग लेना, तू तो दौड़ में हम सब को हरा देती है। दीपू ने मीतू से कहा और जानती है रेस में जो प्रथम आयेगा उसे एक साइकिल भी मिलेगी।
“अच्छा ! फिर तो मैं रेस में जरूर भाग लूंगी, मुझे साइकिल चाहिए। ” मीतू ने कहा
“और हां उसके लिए रजिस्ट्रेशन कराना है और वह भी आज ही । महेश्वर काका नाम लिख रहे हैं चल तेरा नाम भी लिखवा देता हूं।” दीपू ने कहा।
“चलो ,पर एक बात है।”
“क्या बताओ ?”
“मेरे पास दौड़ने के लिए जूते भी नहीं है। कोई बात नहीं मै चप्पल पहन कर ही दौड़ लगा लूंगी।” मीतू ने समस्या का
समाधान निकालते हुए कहा।
“अरे कोई बात नहीं, मैं अपने जूते लाकर तुमको दे दूंगा।
मेरे पास दो जोड़ी जूते हैं।”
“फिर तो ठीक है काम बन गया।”
मीतू के पापा फैक्ट्री में काम करते थे किन्तु उनके घर में परिवार बड़ा था तथा कमाने वाले केवल एक। अतः आर्थिक तंगी लगी ही रहती थी। कभी कभी तो दो जून खाने की भी तंगी आ जाती।
दीपू ने शाम को अपने जूते मीतू को लाकर दे दिए साथ ही साथ सुबह जल्दी उठकर फैक्ट्री चलने की भी हिदायत दे गया। मीतू बहुत खुश थी कि जूते मिल गये ।अब वह उसे
पहनकर खूब तेज दौड़ेगी तथा रेस जीतकर साइकिल अपने घर लायेगी। उसके पापा अब रोज साइकिल से कारखाने जाया करेंगे।
मीतू ले बेटा मांड पी ले आज इसी से पेट भरना है कल कारखाने में खूब छककर हमलोग खायेंगे।
जी मम्मी जी। मीतू मांड़ का कटोरा लेकर बरामदे में चली गयी। सफेद रंग के चावल के मांड़ को आधा एक दूसरे कटोरे में डाला और आधा पी लिया। पेट तो नहीं भरा पर जूते भी तो चमकाने थे। उसने आधे मांड़ को उसने उन जूतों
पर पॉलिश की तरह लगा दिया।
दूसरे दिन सुबह मीतू की आंखें जल्दी ही खुल गयीं वह सबसे पहले अपने जूतों को देखने गयी की वे कैसे लग रहे हैं ,परन्तु यह क्या ? ये जूते तो अभी गीले ही थे। जनवरी के कड़ाके की ठंड में जूते भला कैसे सूखते। बाहर ठंडी हवा बह रही थी। मीतू अब पेशोपेश में फंस गयी थी, वह अब करे भी
तो क्या करे ? उसे दौड़ में भाग तो लेना ही लेना था। तेज बहने वाली ठंडी हवाएं भी उसको डिगाने में सक्षम नहीं थीं।
तभी दीपू भी आ गया , चल मीतू तैयार हो गयी की नहीं । आज हम लोग थोड़ा जल्दी ही चलेंगे। आज कारखाने को भी घूमकर देखा जायेगा।
“बस तैयार हो गयी,दो मिनट ठहर जा। मीतू उस गीले जूते को ही पहनकर बाहर आ गयी। दोनों कारखाने की ओर चल दिए। बाहर चलने वाली ठंडी हवाएं और पैरों में गीले जूते उसकी हालत खराब कर रहे थे पर उसे तो रेस में भाग लेने का जुनून था।
आखिर रेस का समय भी आ गया। सभी बच्चे लाइन में खड़े हो गए। मीतू भी लाइन में खड़ी थी किन्तु ठंड से उसके पैर अकड़ रहे थे। एक दो तीन और रेस शुरू हो गयी। मीतू
अपने पूरे जी-जान से इस रेस को जीतना चाहती थी।वह पूरे ही आत्मबल से दौड़ रही थी। आखिर वह सबसे पहले लाइन पार कर गयी किन्तु साथ ही साथ वह बेहोश होकर गिर पड़ी।
लोग दौड़ कर उसके पास पहुंचे और उसके जूते पर हाथ पड़ते ही सन्न रह गए। वे जूते तो पूरी तरह से गीले थे और मीतू के पैर बर्फ जैसे ठंडे।
काफी उपचार के बाद उसे होश आया तो उसका पहला सवाल यही था,”क्या मैं रेस जीत गई ?”
“हां बेटा आप रेस जीत गयी हैं ,साथ ही साथ यह साइकिल भी। यही नहीं अब आपकी पढ़ाई का पूरा खर्च भी कम्पनी ही उठायेगी।” कम्पनी के मैनेजर साहब ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। वे उस बालिका के साहस के
आगे नतमस्तक थे।
मीतू के माता-पिता और उसका सहपाठी दीपू के खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। मीतू के जीवन के सफर में एक सुखद मोड़ आ चुका था।
डॉ सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली