आज दिवाली का त्यौहार था। चारों ओर पटाखे और आतिशबाजी की ध्वनि गूंज रही है,तभी अचानक आग की एक चिन्गारी पास की एक झोपड़ी पर गिर गयी,और वह चिंगारी आग की लपटों मे बदल गयी, धीरे-धीरे वह पास के एक घर तक पहुंच गई,जहा परिवार के सभी सदस्य बिराजमान थे, किसी तरह पिता और बेटा तो वहां से बाहर निकल आये पर मा अन्दर ही रह गयी, बेटा बाहर आकर चिल्लाता रहा , बचाओ ,मेरी मां को अरे कोई तो बचाओ, लेकिन अंदर से आ रही कराह को कोई महत्व नहीं दिया गया, अंदर वालों को बाहर निकालने के लिए किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी, आखिर क्यों? आखिर क्यों ऐसा? क्या लोगों में इंसानियत नहीं बची?
औरों को तो छोड़ ही दीजिए ,क्या पति का यह कर्तव्य नहीं था जिसने अग्नि के सामने सात फेरे लेकर पत्नी के रूप मे स्वीकार किया था आज उसी को अग्नि के बीच घिरी देखकर भी बचाने के लिए जरा भी अपनी जान जोखिम मे डालने को नही दिखा, जिस औरत ने उसके साथ 15 साल उसके साथ उसके बच्चे के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा कर सब की सेवा की और आज उसकी जरूरत है तो उसके लिए अपना पति भी अपना नहीं हुआ। क्या त्याग और बलिदान सिर्फ औरत और बेटियों के लिए है?
आज बदलते हुए इस दौर मे समाज को नारी का महत्व स्वीकाना होगा साथ ही नारियो को भी अपना महत्व समझना चाहिए और खुद को इस लायक बनाना चाहिए कि जरूरत पड़ने पर अपने हाथ -पैर और बुद्धि से काम लेकर विपत्ति से मुक्त की राह तलाश सके…।
डोली शाह
निकट -पी एच ई
पोस्ट -सुल्तानी छोरा
जिला -हैलाकंदी
असम 788162