जिस तरह मां के न रहने पर बचपन चला
जाता है , ठीक उसी तरह सास के जाने पर भी
एक बहू का रूप खत्म हो जाता है और बाकी लोग केवल पट्टीदार की भूमिका में रह जाते हैं।
वह लाड़-प्यार ,डांट डपट सभी केवल याद बनकर रह जाते हैं जो जीवन भर एक टीस ही
देते हैं।
मेरी सासू मां से मेरा प्रथम परिचय मेरी सगाई
के समय हुई थी जब वह सगाई करने आयीं थी।
एकदम गोरी चिट्टी ,माथे पर बड़ी सी बिन्दी और
हंसता हुआ चेहरा। मुझे वे अपनी मां से थोड़ी सी अच्छी लगीं क्योंकी मेरी मां तो हमेशा ही
गुस्से में रहने वाली थी। थोड़ी सी गलती हुई नहीं कि चालू हो गई।
शादी के बाद मैं कुछ दो तीन दिन साड़ी पहनकर पढ़ने के लिए विश्वविद्यालय गयी और
दो तीन बार गिरते-गिरते बची। उन्होंने तुरन्त ही
मुझे टोका , तुम्हारे सूट कहां हैं जो यह पांच मीटर की साड़ी लपेटे रहती हो।बस फिर क्या था उसी दिन से मैं सूट पहनकर विश्व विद्यालय
जाने लगी। उनके इस निर्णय को घर के ही कुछ
लोगों ने पसंद नहीं किया किन्तु उन्होंने किसी
की भी परवाह नहीं की। यहां वे किसी भी सूरत
में मां से कम नहीं थी अपितु अधिक ही थीं।
यही नहीं मेरी पढ़ाई देखते हुए उन्होंने मुझसे
चूल्हा छूने की एक परम्परा भी नहीं करायी।इस
परम्परा में बहू से पहले चूल्हा छूने यानी पहले
कुछ मीठा आदि बनवाते हैं। फिर उसे घर के
बड़े बूढ़े और रिश्तेदार खाते हैं और बहू को कुछ उपहार वगैरह देते हैं।बस उस दिन के बाद
से बहू द्वारा रसोई संभाल ली जाती है। मेरी पढ़ाई भी पूरी हो गई और नौकरी भी लग गई
और मैं दिल्ली चली आई। साल दो साल में जब
भी जाना होता लोग चूल्हा छूने की रश्म की बात उठा देते लेकिन उन्होंने हमेशा कोई न कोई बहाना बनाकर मना कर देती। उनका कहना था
इतने सारे लोग घर में हैं और मैं हूं तो क्या जरूरत है कि वह चूल्हा छुए। चार दिन के लिए
तो आती है उसे क्यों परेशान करना। आखिर
जहां है वहां तो उसे बनाना खाना ही पड़ता है।
मैं जब भी ससुराल गांव जाती,वे हमें अलग-अलग तरह की चीजें बनाकर खिलातीं
और घर के लोग मन ही मन में चिढ़ते रहते।कभी कभी तो कुछ मजाक भी करते तो तुरंत
जवाब देती वह भी तो बेटे की तरह कमा रही
है और घर के लिए कर रही है।अगर चार दिन
उसे कुछ बना खिला देती हूं तो क्या बुराई है।
मेरी सास जब मेरे पास भी आती तो वहीं
हाल होता । मैं केवल सुबह अपने लिए कुछ
बनाकर लेकर सुबह सात बजे स्कूल चली जाती।दोपहर का खाना वहीं बनाती तथा रात
में भी आधे से अधिक ही मदद करती।
पड़ोसियों के कुछ सिखाने पढ़ाने पर उन्हें भी
जोरदार जवाब देती।
“आखिर वह भी तो नौकरी कर रही है फिर
घर आकर दो छोटे छोटे बच्चों को भी संभालती
हैं। मैं अगर खाना बना लेती हूं तो क्या बुराई है? लोगों की जबान बन्द हो जाती।
मुझे यही लगता था की सासू मां हैं तो मुझे
कल को अपने बच्चों के शादी ब्याह की भी चिंता करने की जरूरत नहीं है। परन्तु सुख के
दिन शायद हमेशा नहीं रहते। उस समय वे गांव में छोटे देवर देवरानी के साथ थीं।अचानक ही लो ब्लड प्रेशर होने से वे हम सभी को छोड़कर
चली गई।उस समय ऐसा लगा की अब इस घर
में सासू मां की तरह उससे प्यार करने वाला अब कोई नहीं है। बिना सास के ससुराल अधूरा
है।
डॉ सरला सिंह स्निग्धा