कविता मल्होत्रा (संरक्षक, स्थायी स्तंभकार)
भला चारित्रिक गठन अनुवांशिक कहाँ होता है
अनासक्त प्रेम जहाँ पर्यावरण सुरक्षित वहाँ होता है
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विश्व का असीम और निःशुल्क पुस्तकालय मानव मन में ही विद्यमान है, जो हर किसी को अपने मन का अध्ययन करने में सहायक होता है। लेकिन इस पुस्तकालय तक पहुँचने का न तो कोई नक़्शा होता है न ही कोई नक़्श।मानव मन की इच्छा शक्ति में वो ताक़त है जो सारे संसार को उलट पलट करने की क्षमता रखती है।फिर भी आधुनिक समाज अपने बच्चों को अपने देश का साहित्यिक मंच प्रदान करने की बजाय प्राइवेट स्कूल की शिक्षा, निजी शिक्षण संस्थानों के तमग़े, और विदेशी उपाधियों के सर्टिफिकेट दिलाने के लिए तत्पर रहता है।मोटी फ़ीस चुका कर यश, पैसा और अधिकार कमाने के लिए किये गए सभी कामों में स्वार्थ निहित होता है।लेकिन प्रकृति हमें दिन रात निःशुल्क निस्वार्थता का ही सबक़ सिखाती है, जिसे हम सब नज़रअंदाज़ कर देते हैं और मानव जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य पाने का अवसर चूक जाते हैं।जब प्रकृति हमसे नाराज़ होकर हमें अपना रौद्र रूप दिखाकर सही राह पर लाना चाहती है तब भी हम मानवीय कृत्यों पर दोषारोपण करते हुए अपना क़ीमती वक़्त ज़ाया कर देते हैं।ये तो सच है कि प्राकृतिक आपदाओं को रोकने की सामर्थ्य तो किसी के पास नहीं है, लेकिन इन आपदाओं को उत्तेजना के स्तर पर पहुँचाने में समूची मानव जाति का हाथ है।किसी भी देश समाज या व्यक्ति की तरक़्क़ी के रास्ते अगर किसी देश समाज या व्यक्ति की भावनाओं को कुचल कर गुज़रते हों तो उस तरक़्क़ी के सूरज को ग्रहण लग जाता है।अपने स्वार्थ के लिए नाज़ुक लताओं का संहार,अपनी बिल्डिंग के निर्माण के लिए फले फूले वृक्षों पर प्रहार, न केवल किसी भी मुल्क की हरियाली पर सचेत हमला है बल्कि एक सोचा समझा षड्यंत्र है जो नदियों की बौखलाहट का कारण भी है और सागर की बेचैनी का उदाहरण भी है।
पर्यावरण की सुरक्षा क्या केवल एक दिवसीय परिधि में सिमट कर कोई परिवर्तन ला सकती है?
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सांसारिक अधिकार चाहिएँ तो कर्तव्यों को भी चाहा जाए
पर्यावरण तभी सुरक्षित रहेगा जब दायित्वों को निबाहा जाए
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वतन की हरीतिमा का अर्थ बहुत व्यापक है लेकिन अगर मानव जाति को अपना कर्तव्य बोध हो जाए तो समूचे विश्व में बहारों का मौसम दस्तक दे सकता है।ज़रूरत है तो केवल अपने मन वचन और कर्म में सामंजस्य स्थापित करने की।ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ उन क्रियाकलापों पर अपनी कृपा दृष्टि बरसाया करतीं हैं जिनमें जन कल्याण की भावना निहित होती है।
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अगर हर दिल में तू-तू मैं-मैं और परस्पर विरोधी गाली होगी
फिर कैसे पर्यावरण साफ रहेगा कैसे वतन में हरियाली होगी
वैभव और अभाव तो अपने ही कर्मफल की निशानियाँ हैं सब
जो संपूर्ण सृष्टि को पोषित कर सके वही रूह मतवाली होगी
अपनी प्यास बुझाने के लिए यत्न करना कोई बड़ी बात नहीं
प्यासे दिलों को नूरानी बूँद चखाती महक ही संदियाली होगी
मानव जीवन का उत्कर्ष निष्पक्ष समूचे ब्रह्मांड का उत्थान है
ईर्ष्या द्वेष में लिपटी प्रीत झूठी और इब़ादत भी जाली होगी
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हम सभी मुसाफ़िर हैं जो एक निश्चित समय के लिए सफ़र पर निकले हैं।केवल अपनी इच्छा पूर्ति के लिए ज़िंदा रहना तो पशुओं का काम है, इसलिए केवल ज़िंदा रहने के लिए खाएँ और अनासक्त किरदार निभाएँ तो फूलों का पराग भी सुरक्षित रहेगा और प्रकृति का अनुराग भी।
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न ग़ुलामी करें किसी की न खुद को किसी का ग़ुलाम बनाएँ
पर्यावरण सुरक्षित रहे मन लक्षित रहे ऐसा हिन्दुस्तान बनाएँ
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ये वो दैवी संपत्ति है जो संसार के सभी जीवों को साँस लेने में सहायक होती है, इसकी सुरक्षा ज़िम्मेदारी सभी की है, इसलिए चौकन्ने हो जाएँ और अपने मन में जागृति की जिजीविषा जगाएँ।
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कृतज्ञ रहें सुविज्ञ रहें तो ये जीवन यात्रा तीर्थ हो जाए
हर आँख की नमी में सागर दिखे मन भगीरथ हो जाए