धर्म की उत्पत्ति का मुख्य आधार मानव जीवन से है अर्थात जब से मनुष्य की उत्पत्ति हुई है इसके साथ-साथ ही धर्म की उत्पत्ति हुई है। मानना उचित है क्योंकि धर्म मानव जीवन में ही पाया जाने वाला एक मानवीय गुण है। ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक दृष्टिकोण से धर्म की उत्पत्ति हुई है। धीरे-धीरे इनका विकास हुआ। महापुराण महाभारत ग्रंथ के अनुसार कुरु ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा।
कुरुक्षेत्र को ‘धर्मक्षेत्र’ क्यों कहा जाता है ?
श्रीमद्भगवद्गीता का आरम्भ ही ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ इन शब्दों से होता है । कुरुक्षेत्र जहां कौरवों और पांडवों का महाभारत का युद्ध हुआ और जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य वाणी से गीता रूपी अमृत संसार को दिया, उसे धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र क्यों कहा जाता है ? इसके कई कारण हैं ।
श्रीमद्भगवद्गीता का आरम्भ ही ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ इन शब्दों से होता है । कुरुक्षेत्र जहां कौरवों और पांडवों का महाभारत का युद्ध हुआ और जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य वाणी से गीता रूपी अमृत संसार को दिया, उसे धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र क्यों कहा जाता है ? इसके कई कारण हैं—
प्राचीन कुरुक्षेत्र एक विशाल भू-भाग था, जिसमें बहुत से शहर और गांव आबाद थे । प्राचीन काल से ही कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र रहा है। यजुर्वेद में इसे इन्द्र, विष्णु, शिव व अन्य देवताओं की यज्ञभूमि बताया गया है । यह क्षेत्र ब्रह्माजी की ‘उत्तर-वेदी’ के नाम से भी प्रसिद्ध है । उत्तर-वेदी ब्रह्माजी की पांच वेदियों में से एक है, जहां ब्रह्माजी ने यज्ञ किए थे । इस क्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर ऋषियों ने सबसे पहले वेद-मंत्रों का उच्चारण किया । इसी भूमि पर महर्षि वसिष्ठ और विश्वामित्र ने ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त किया । महर्षि भृगु ने भी इस स्थान पर बहुत समय तक तपस्या की; इसलिए यह स्थान पहले ‘भृगु क्षेत्र’ के नाम से प्रसिद्ध था ।
कहा जाता है कि कौरवों और पांडवों के पूर्वज भरत वंश के महाराज कुरु ने इसे आध्यात्मिक शिक्षा का विशाल केन्द्र बनाया । प्रजा में धर्म भावना जाग्रत हो, धन-धान्य की समृद्धि हो; इसलिए उन्होंने ब्रह्माजी की उत्तर-वेदी जैसे पावन स्थान पर आध्यात्मिक शिक्षा तथा अष्टांग धर्म की खेती करने का निश्चय किया । तप, सत्य, क्षमा, दया, शौच, दान, योग तथा ब्रह्मचर्य—इन्हें अष्टांग धर्म कहते हैं ।
महाराज कुरु यहां स्वर्ण रथ पर बैठ कर आए और उस रथ के स्वर्ण से उन्होंने कृषि के लिए हल बनवाया । अब हल तो बन गया पर उसे खीचे कौन ? इसके लिए उन्होंने भगवान शिव से बैल (वृषभ) और यमराज से भैंसा (महिष) लेकर खेती आरम्भ की । राजा कुरु इस धर्मक्षेत्र को धर्मपूर्वक जोत रहे थे ।
तब एक दिन देवराज इंद्र ने आकर राजा से पूछा—‘तुम यह क्या कर रहे हो ?’
राजा कुरु ने कहा—‘मैं अष्टांग धर्म की खेती के लिए जमीन तैयार कर रहा हूँ ।’
इंद्र ने पूछा—‘बीज कहां हैं ?’
राजा ने उत्तर दिया—‘देवेन्द्र ! आप घबरायें नहीं, बीज मेरे पास है ।’ यह सुन कर इंद्र हंसते हुए अपने स्थान को लौट गए । राजा कुरु नित्य सात कोस भूमि खेती के लिए तैयार करते थे । इस तरह उन्होंने 48 कोस भूमि कृषि के लिए तैयार कर ली ।
राजा के ऐसे परिश्रम को देख कर भगवान विष्णु एक दिन वहां आए और राजा कुरु से पूछा—‘ये आप क्या कर रहे हैं ?’
राजा ने भगवान विष्णु को भी वही उत्तर दिया जो उन्होंने इंद्र को दिया था ।
भगवान विष्णु ने कहा—‘राजन् ! आप बीज मुझे अर्पण कर दें, मैं उसे आपके लिए बो दूंगा ।’
राजा कुरु ने ‘यह है बीज’ कह कर अपनी दाहिनी भुजा फैला दी । भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से भुजा के सैंकड़ों टुकड़े कर उन्हे कृषि क्षेत्र में बो दिया । इसी प्रकार राजा ने बीजारोपण के लिए अपनी बायीं भुजा, दोनों पैर और अंत में अपना सिर भी भगवान विष्णु को अर्पण कर दिया ।
इस प्रकार राजा ने अपना सम्पूर्ण शरीर अष्टांग धर्म की खेती के लिए भगवदर्पण कर दिया अर्थात् धूलि में मिला दिया । बिना शरीर को धूलि में मिलाए, बिना खून-पसीना एक किए, बिना कठोर श्रम के, धर्मक्षेत्र की खेती नहीं होती है; इसलिए राजा ने अपना सर्वस्व भगवान को समर्पण कर दिया ।
जो सर्वस्व ब्रह्मार्पण कर देता है, उसी पर भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं । राजा के ऐसे तप, सत्य, क्षमा, दया, शौच, दान, योग तथा ब्रह्मचर्य के दृढ़ व्रत को देख कर भगवान ने प्रसन्न होकर राजा को पुनर्जीवित कर दिया और उनसे वर मांगने को कहा ।
राजा ने चार वर मांगे—
(१) ‘जितनी भूमि मैंने जोती है, वह सब पुण्यक्षेत्र, धर्मक्षेत्र होकर मेरे नाम से प्रसिद्ध हो ।
(२) भगवान शिव सभी देवताओं सहित यहां वास करें ।
(३) यहां किया हुआ स्नान, उपवास, तप, यज्ञ तथा शुभ व अशुभ—जो भी कर्म किया जाए वह अक्षय हो जाए ।
(४) जो भी यहां मृत्यु को प्राप्त हो, वह अपने पाप-पुण्य के प्रभाव से रहित होकर स्वर्ग को जाए ।’
भगवान ने ‘तथाऽस्तु’ कह कर चारों वर राजा को दे दिए । तभी से यह अति पावन क्षेत्र ‘धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।
इस क्षेत्र में 13 दिन तक किया हुआ दान व तप 13 गुनी वृद्धि को प्राप्त होता है ।
पद्मपुराण में कुरुक्षेत्र के माहात्म्य में कहा गया है कि जो व्यक्ति मन से भी कुरुक्षेत्र जाने की इच्छा करता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और जो वहां की तीर्थयात्रा करता है, उसे राजसूय व अश्वमेध दोनों यज्ञों का फल प्राप्त हो जाता है ।
महाभारत का युद्ध ‘धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र’ में इसलिए कराया गया कि यहां जो भी मरेगा, उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी । यह धर्म की लड़ाई थी और धर्मराज स्वयं लड़ने वाले थे । दोनों ही पक्ष कौरव और पांडव कुरु वंश के ही थे; इसलिए कुरुक्षेत्र को युद्ध के लिए चुना गया ।
मनुष्य के आत्म विकास के लिए जीवन में दैवीय गुणों को ग्रहण करना एकमात्र श्रेष्ठ और सरल उपाय है ।