दुआ मेरी गूंगी है, रब मेरा बहरा है.
उफनती दीवारों पर सब्र का पहरा है.
हथेलियों पे छाले पड़ जाते हैं,
जब परछाइयों को पकड़ता हूँ, जकड़ता हूँ.
जकड़ी परछाई डरी सहमी रहती है.
ढील हुई नहीं कि ये गई, वो गई.
अपने जिस्म से जुडी भी डरती है कम्बखत जिंदगी.
तारों से परे दुबक कर कोने से बस तकती है जिंदगी.
चाँद जब आसमां पर तैरता, गुजरता है मेरी गली से,
उसकी चांदनी पकड़ मैं लटक, बहक जाता हूँ.
ऊपर चढने की कोशिश में चौंधियाता हूँ, गिर जाता हूँ.
फिर उठता हूँ, झेंप मिटाता हूँ और सारे सपने
अगली पूर्णमासी पर टाल देता हूँ.
तुम्हारी यादों के लिफाफे पर कोई और नाम पढता हूँ.
हँसता हूँ ज़ार-ज़ार, खिलखिला के रोता हूँ.
क्यों होता है प्यार? कुछ होती भी है मोहब्बत?
तेरे व्यापार से आजिज़ हूँ मैं,
तू बिके तो चैन आये.
हवा फिर नई सांसे बिखेरे,
दामन में फिर कोई आस डाल जाए.
तंग हूँ बहुत अपने आप से.
बात नहीं करता अपने आप से.
कुट्टी कर रखी है बस.
तू आती तो अब्बा हो जाती.
पर श्राप भी कोई चीज़ होती है,
बीमारी सी लगी रहती है.
जौक से मिलती सी, ग़ालिब की खलिश सी.
कभी जिंदगी का नशा कम न था, जब घुली थी तुम उसमे.
मीठा बनाकर शर्बत में, अब कुनीन डाले जाती है जिंदगी.
पर चलूं, शाम आने को है. क्या जवाब दूँगा उसे.
दिन भर कुछ हुआ नहीं, किया ही नहीं.
पानी पर लकीर ही खींचता रहा.
जलता, कुढता जीता रहा.
डरता रहा, मरता रहा.
हूम हूम करता रहा,
फिर से अभिमन्यु, बस लड़ता रहा.
–दिनेश कपूर