बात आज की नहीं बरसों पुरानी है।तब मैं शायद सातवीं या आठवीं कक्षा में रही हूँगी। सर्दियों के दिन थे। अच्छी -खासी ठण्ड पड़ रही थी। हम भाई –बहन दिन भर स्कूल ,खेल –कूद ,गृह -कार्य,तू-तू मैं -मैं और तरह -तरह की खुरपातों में लगे रहते और रात को खाना खाने के बाद अपनी -2 रजाइयों में घुसते ही कब नींद के आगोश में चले जाते ,पता ही नहीं चलता था। अगली सुबह माँ जब स्कूल जाने के लिए उठाने के लिए आवाज़ लगाती तो मन करता कि काश कुछ घंटे और सोने को मिल जाते। ऐसी ही एक रात जब हम रजाइयों में दुबकने की तैयारी कर रहे थे तो किसी ने मुख्य द्वार पर दस्तक दी फिर माँ की चप्पलों की आवाज़ मुख्य द्वार की ओर जाती हुई सुनाई पड़ी और कुछ ही देर बाद बैठक से महिलाओं के रोने की आवाज़ें आने लगीं। जिज्ञासा वश हम सभी भाई -बहन बैठक में पहुंचे तो पाया माँ और बुआ एक दूसरे को थामे हुए रो रही थीं । फूफाजी और पिताजी पास ही सिर झुकाये बैठे थे ,उनकी आँखे भी नम थीं। करीब आधा घंटा रोने का कार्यक्रम करके बुआ और फूफा जी वापस अपने घर चले गए। बुआ का घर हमारे घर से कुछ किलोमीटर के फासले पर रहा होगा। फूफा जी अपने स्कूटर पर बुआ को लेकर आये थे। उन दिनों आजकल की तरह कारों का जमघट नहीं होता था। स्कूटर होना भी बड़ी बात मानी जाती थी । रोने का कारण पूछने पर माँ ने बताया कि बुआ के घर पर टेलीग्राम आया था कि दिल का दौरा पड़ने से गांव में बड़ी अम्मा गुज़र गईं हैं।
बड़ी अम्मा यानि कि हमारे पिताजी की ताई, जो कि तेरह -चौदह वर्ष की रही होंगी जब ब्याह कर ससुराल आईं थीं और इससे पहले कि माँ बन पाती सांप के काटे जाने से ताऊ जी का देहांत हो गया था । झाड़ -फूँक करने वालों और डॉक्टर -हकीम सबको दिखाया गया था पर कोई भी ताऊ जी को मौत के मुँह से बचा नहीं पाया। ताई जी के मायके से उनके भाई एवं माता -पिता आए थे, गमी में शामिल हुए परन्तु बेटी को साथ ले जाने की कोई चर्चा नहीं की और वापस चले गए। और उसके बाद बस कभी -कभार पचास रूपये ,फिर कुछ सालों बाद सौ और फिर दो सौ रूपये मनी आर्डर से भेज देते। यह सब माँ ने ही बताया था जब एक बार बड़ी अम्मा हमारे घर आने वाली थीं। ठीक से तो याद नहीं शायद हमारी सबसे छोटी बहन की पैदाइश से पहले की बात रही होगी। छोटा कद ,गोरा रंग ,पतली -दुबली ,आँखों पर गोल फ्रेम वाला चश्मा,चाँदी से चमकते सफ़ेद बालों की छोटी सी चोटी,यही उनका हुलिया था और हल्के रंगो की धोतियाँ और जेब वाले ब्लाउज पहना करती थीं हमारी बड़ी अम्मा। ज़्यादा बात नहीं करती थीं ,और कुछ पूछना हो तो ज़ोर से चिल्लाकर बोलना पड़ता था क्योंकि उन्हें ऊँचा जो सुनाई देता था।
माँ के अलावा हमारी दादी माँ की चार बहुएं और भी थीं। उन दिनों एक या दो बच्चे होते हैं घर में अच्छे या हम दो हमारे दो के नारे शुरू ही हुए थे और सब लोगों ने उनका पालन करना भी शुरू नहीं किया था इसलिए माँ सहित दादी माँ की किसी न किसी बहु का हर साल पांव भारी होता और किसी न किसी बहु का जापा। हमारी दादी माँ तो हमेशा से ही अपनी गृहस्थी और छह बच्चों को सँभालने में और उनके शादी ब्याह निपटाने में ही व्यस्त रहीं इसलिए निस्संतान -विधवा,बड़ी अम्मा की ड्यूटी रहती थी बहुओं के जापे करवाने की। जिस किसी बहू का पांव भारी होता उस बहू के पास सातवां -आठवां महीना पूरा होते -2 बड़ी अम्मा को पंहुचा दिया जाता और जचगी हो जाने के बाद दो चार महीनों तक वो वहीं रहतीं ,जच्चा को खूब आराम देतीं और नन्हे बालक की छठी और कुआँ पुजातीं ,नामकरण और हवन करवातीं और तब तक किसी और बहू के पांव भारी होने की ख़बर मिल जाती। तो इस घर से एक नई धोती- ब्लाउज और कुछ नेग के साथ दूसरी बहू के यहाँ रवाना कर दी जातीं। इसी तरह बड़ी चार बहुओं के चार-चार और सबसे छोटी बहू के दो मिलाकर शायद अट्ठारह जापे करवाए होंगे बड़ी अम्मा ने। इतने सारे बालकों को गोद खिलाना लिखा था उनकी किस्मत में ,शायद इसी लिए उनकी गोद सूनी रखी भगवान ने। भगवान की माया भी भला कोई समझ पाया है क्या ?बड़ी अम्मा का बहुत सालों तक इसी तरह सबके घर आना -जाना चलता रहा ,एक जगह टिक कर तो रहना हो ही नहीं पाया शायद इसीलिए हम बच्चों का उनसे इतना लगाव भी नहीं हो पाया परन्तु इतने साल बीत जाने के बाद दूरदर्शन पर अभी हाल ही में एक कार्यक्रम देख रही थी जो एकाकी -विधवा महिलाओं पर आधारित था तब अनायास बड़ी अम्मा की याद आ गयी और आँखें नम हो गयीं। जब हम छोटे थे तब वह कैसे समझ पाते जो आज समझ आ रहा है। कि एक निस्संतान -विधवा महिला ने किस तरह अपनी पूरी ज़िन्दगी एक बंजारन की तरह गुज़ार दी। तब एक विधवा के पुनर्विवाह की बात सोची भी नहीं जाती थी बल्कि उन्हीं दिनों राजस्थान की रूपकंवर के सती होने की ख़बर ने भी बहुत जोर पकड़ा था और सारी मीडिया और सरकार का ध्यान भी अपनी ओर खींचा था। उन दिनों सारे अख़बार इसी ख़बर से रंगे रहते थे। इस घटना ने तो सबको बहुत कुछ सोचने पर विवश किया और सती प्रथा के ख़िलाफ कानून भी बना और अब सती प्रथा का हमारे देश में अंत हो चुका है पर बड़ी अम्मा की तरह न जाने कितनी विधवा महिलाओं ने अपनी ज़िन्दगी गुज़ारी होगी इसपर हमारा ध्यान आज भी नहीं जाता।
– नीता गुप्ता
(द्वारका) नई दिल्ली