जहाँ तक संस्कृति कीबात है, अगर वैदिक संस्कृति ही भातीय संस्कृति है तो इसकी सर्वाधिक पुरातनता में अब कोई संशय नहीं।यह वैदिक संस्कृति आर्य संस्कृति है।
ऐसा प्रतीत होता है कि मानव के अस्तित्व मे आते ही जिन प्रश्नों से मानव का साक्षात्कार हुआ होगा– वे कौन ,क्या और कैसे जैसे प्राथमिक प्रश्न ही रहे होंगे। जिनका उत्तर उसने स्वयं में ढूँढा होगा। सम्पूर्ण विश्व में तब यह एक ही संस्कृति “आत्मा” की थीऔर एक ही भाषा’ सत्य’ की थी। मानव इन प्रश्नों का उत्तर दो तरह सेढूँढने को विवश था–आन्तरिक रूप से ध्यान व मेडिटेशन के द्वारा और वाह्य रूप से, स्थान विशेष , व्यक्तिविशेष अथवा प्रतीक विशेष की अराधना के द्वारा।।पूरे विश्व में सभ्यता के उदय के पूर्वकुछ विचारकों की सहायता से ही जीवन के मार्ग निर्धारित हुए होंगें। कालान्तर में वाह्य जीवन संघर्षमय होता गया। संस्कृतियों में टकराव की स्थिति आई। ।संघर्षमय जीवन ने अर्थ को प्रधान मानते हुए सादगी से धीरे धीरे दूरी बना ली। । यह सभ्यता का तथाकथित विकास तो था परअध्यात्मिकता का क्षरण भी इसी में निहित था।। और अब स्थिति ऐसी है कि विश्व इससे पीछे नहीं लौट सकता।
- किन्तुआर्य सभ्यता की स्थितिेइनसे कुछ अलग औरविशिष्ट रही।यह जानना है कि वह आर्य सभ्यता जिससे हम स्वयं को जोड़ते हैं वह क्या है? सर्वप्रथम आर्य शब्द का ही अर्थ जानने का प्रयत्न करें।संस्कृत में आर्य का अर्थ शुद्ध और भद्र माना गया है। वे संभ्रांतहैं, उच्च विचार, सहृदय ,और अध्यात्मिक मूल्यों से जुड़े लोग हैं।वैदिक संस्कृति के मूल में आर्य इसी स्वरूप में जाने जाते हैं।वैदिक संस्कृति ऋषियों मुनियों, और आध्यात्मिक बोध वाले लोगों से निर्देशित है।और इस मायने में हर वह संस्कृति जो इस बोध से जुड़ी है वह आर्यन है,और इसके विपरीत प्रकृतिसे जुड़ी संस्कृति अनार्य है।
कालान्तर में मूल संस्कृत अर्थ से इसे दूर कर दिया गया। और एक जातिविशेष के रूप में इसे जाना जाने लगा। भाषा की समानता के आधार पर भी एक भाषा संवर्ग के लोगों को इस जाति विशेष से जोड़ दिया। इस प्रकार आर्य शब्द का मूल अर्थ बाधित हो गया।किन्तु आज हम इस आर्य संस्कृति को इसके संस्कृत सम्बद्ध अर्थ से जोड़कर ही देखना चाहते हैं।
आज जब यह सिद्ध हो गया हैकि संस्कृत प्राचीनतम मानव भाषा है, यह भी कि भाषा की मूल प्रकृति के अनुसार ही वेदों में वर्णित इसके स्वरूप से पूर्व भी टूटे फूटे स्वरूप में यह विद्यमान थी जिसे तत्कालीन तीक्ष्ण बुद्धि लोगों ने एक परिष्कृत रूप प्रदान किया होगा औरऔर उन्हें ही देवों की संज्ञा प्रदान की गयी होगी।। मगर यह टूटी फूटी भाषा भी संस्कृत ही थी ।और संस्कृतभाषी वह सम्पूर्ण समुदाय आर्यही रहा होगा क्योंकि उनकी प्रारंभिक अवस्था की जीवन शैली अत्यंत प्राकृतिक, सादगी युक्त ,सत्य आधारित विशुद्ध मानसिकता से युक्त रही होगी।
वैदिक आर्यन संस्कृति आध्यात्मिकता और योग आश्रित रही थी। योग आध्यात्मिकता का आश्रय बना। भारत की अन्य प्राचीन संस्कृतियाँ भी योग आश्रित थीं। बौद्ध और जैनभी।बुद्ध ने भी अपनी शिक्षाओं को आर्य नियमों के रूप में स्वीकार किया।इसे आर्य धर्म से सम्बोधित किया।स्पष्ट ही उनका तात्पर्य किसी जाति विशेष से नहींरहा होगा।पर जिन आर्यसत्यों को वेमानते हैं वे अपरिवर्तनीय और अकाट्य रहे होंगे।– संसार में दुख है,– दुख का कारण है–, दुख का निरोध संभव है।- दुख निरोध का मार्ग भी है। इन्होंने इस सिद्धान्त की प्रतिस्थापना करते हुए इन्हें आर्य सत्य कहाथा।
आर्य शब्द को वैदिक एवम इसप्रकार विस्तार पाये गयेअर्थों में समझें तो, इस विचारधारा में पल्लवित संस्कृति के आदिकाल से इसके मूलाधार धर्म ,अर्थ, काम , मोक्ष अथवा एक अन्य दृष्टि से काम, अर्थ, धर्म, और मोक्ष जैसे स्तम्भों से जुड़े रहे हैं। कहना नहीं होगा कि सम्पूर्ण विश्व में इन चार वैचारिक स्तम्भों पर ही आदिकाल से आजतक का मानव समाज आधारित है। वैदिक युग में इसका आरम्भ प्राथमिकता से आधार पर धर्म से होता है।मोक्ष को मानव जीवन का परम लक्ष्य माना गया, और अन्य दो पर आधृत जीवनशैली वाह्य लक्ष्यों पर आधारित मानी गयी । धर्म और मोक्ष पर आधारित जीवन शैली आन्तरिक और आध्यात्मिक थी।भारतीय संस्कृति चाहे वह वैदिक होअथवा अन्य ज्ञान परंपराओं पर आधारितहो, इस आन्तरिक आध्यात्मिक यात्रा से ही जुडी है।
वस्तुतःवैदिक आर्य संस्कृति का तात्पर्य किसी विशेष धार्मिक संस्कृति से नहीं है। यह एक जीवन शैली है जो जीवन के आरम्भ से अंत तक जीवन से जुड़ी है। विचारणीय विषय यह है कि इसे कोई अंगीकार नहीं कर सकता न ही किसी दूसरे के जीवन में प्रत्यारोपित ही कर सकता है। विचारों की अकाट्य सत्यता, मानव के हृदय के स्वाभाविक गुण-दया,माया, ममता , उदारता जीव प्रेम , अहिंसा अस्तेय, इन्द्रिय निग्रह, अपरिग्रह आदि कुछ सनातन मानसिक स्थितियाँ हैं । जिस किसी के हृदय में ये पवित्र मानवीय विशेषताएँ हैं ,वही आर्य है।यह एक विशाल जीवन का विशाल व्यावहारिक क्षेत्र हैजो आत्मा के स्वरूप को सर्वत्र देखता है, ब्रह्माण्डीय संरचना से सम्बद्ध हर विश्वास अथवा धारणा में एकरूपता का प्रत्यक्ष करता है।विभिन्न दैवीय स्वरूपों को स्वीकार करता है।यह तथाकथित हिन्दुओं से एकात्म भाव रखता है।पेड़पौधों नदियों, प्रकृति के समस्त स्वरूपों को पूजनीय मानता है।ऋग्वेद के आदि से अन्त तक प्रकृति पूजा का यह भाव मिलता है जहाँ तक इसके शैक्षिक पहलू का सम्बन्ध है इसके शिक्षण क्रिश्चिएनिटी , यहूदी धर्म , इस्लाम और सूर्य पूजक समस्त धार्मिक समुदाय से समानता स्थापित करते से प्रतीत होते हैं।।
जहाँ तक भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति की बात है , भारत के जन जन के मस्तिष्क मे पैठकरयह जानने की आवश्यकता होती है किवे दुनिया को क्या समझते हैं?क्या उन्हें यह लगता है कि इस सम्पूर्ण सृष्टि में ईश्वर ही प्रतिभासित है?तृण ,तरु ,पात , जल ,नदिया, पर्वत,मरु ,पशु पक्षी कीट पतंग यानि कि सम्पूर्ण दृश्य जगत उसी एक ईश्वरीय सत्ता का बोध कराता है ?अगर ऐसा है तो प्रकृति क्या है?क्या वह ईश्वरीय सत्ता से विलग हैया उसका अविभाज्य अंग? क्या प्रकृति के बिना ईश्वर ने इन सबों की रचना कर दी?द्वैत या अद्वैत ? उपनिषद और वेदान्तजैसा मानते हैं किउदासीन , निष्क्रिय ईश्वर की इच्छा जब अनेक होने की हुई तो सृष्टि रच डाली उन्होंने। एकोsहं बहु स्याम। जगत के प्रत्येक रूप में वह प्रतिभासित हो गया।प्रकृति उसके अधीन है। ब्रह्म से विलग उसकी कोई सत्ता नहीं। वस्तुतः वही माया है।माया असत्य है। इससे पार पाकर ही आत्मा परमात्मा में लय हो सकती है। ये वे दार्शनिक सिद्धान्त हैं जोहमारे उपनिषदों केआध्यात्मिक स्वरूप से जुड़े हुए हैं।
एक दूसरा दृष्टिकोण जिसने इसीभारतवर्ष में जन्म लिया जिसे हम नास्तिक दृष्टिकोण कह सकते हैंकि कहीं कोई ईश्वर नहीं। बौद्धों का यह विश्वास कि सबकुछ शून्य हैयह बुद्धि से जाना नही जा सकता। यह ज्ञान की कल्पना से बाहर है। जो ज्ञान प्राप्त करने का दावा करते हैं वह मिथ्या है। इस शून्यपर जगत व्यापारों को थोपने से ही इसका ज्ञान किया जा सकता है। और यह दृश्य सृष्टि उसी से उत्पन्न है। यह चिन्तनीय है कि शून्य से उत्पन्न हो पुनः रोग, जरा आदि दुखों को भोगकर शून्य में मिल जाना , यह धारणा भी तो वेदान्त से मिलती जुलती है।वेदान्त का ईश्वर जो चेतना स्वरूप है, वह विराट चेतना जो कण कण के चित स्वरूप में भावित होता है,सब एक ही है।यही कारण है कि लक्षित भेद के पश्चात भी भारतीय समाज ऩे गौतम बुद्ध को भगवान का अवतार मान लिया।
यों कहें कि भारतीय समाज बौद्ध हो अथवा नहीं इस शून्यवाद से भी उसका कोई विरोध नहीं।इसे मानकर भी वह मन्दिरों में जाता है,पेड़पौधों की पूजा करता है, सूर्य को अर्घ्य देता है, चन्द्रमा की पूजा करता है और कण कण में, हर जीव जन्तु में इस शून्य की चेतन सत्ता की ही झलक देखता है।
अगर सब शून्य है तोवही सही। अगर शून्य की विराट शक्ति ही हमारे तैंतीस कोटि देवों का मूलहै, राम ,कृष्ण दुर्गा , शिव में भी वहीहै तो भारतीय सामान्य जनमानस को कोई अन्तर नही पड़ता। उन सबों के गुणों और सुरत्व के प्रति वह समर्पित है।एक नियन्ता है, वह चाहे शून्य ही क्यों नही , उसके प्रति समर्पण की भावना जन जन में है।बस वह जो कुछ है, लोकोपकारक हो, आसुरी वृतियों को समाप्त करनेवाला हो।
वह कार्यकारण सम्बन्ध को मानता है लौकिक दृष्टि से भी और अध्यात्मिक दृष्टि से भी। अन्तिम कारण की कल्पना में उसके हाथ सर्वदा जुड़ जाते हैं।
यह अध्यात्मिक संस्कृति विज्ञान से कहीं नहीं टकराती।वह वैज्ञानिक उपलब्धियों की प्रथम जन्मदात्री है।डॉल्टन का अणु परमाणुवाद हमारे वैशेषिक और न्याय दर्शन के समकक्ष ही तो है।यह कण कण में निहित विराट शक्ति को ही प्रगट करता है । परमाणुओं की संयोगात्मक शक्ति से सभी तत्वों,द्रव्यों के निर्माण की बात करता है। ये वे परमाणु हैं जिनका जन्म नहीं होता और जो कभी नष्ट नहीं होते,साथ ही जो अविभाज्य हैं।वस्तुतः जिसे हम विकसित विज्ञान की उपलब्धि मानते हैं.वह हमारी सांस्कृतिक आध्यात्मिक चेतना के वैशेषिक दार्शनिक चिंतन से जुड़ा है। यह कण कण की अन्तर्निहित विराट शक्ति को ही प्रगट करता है। भौतिक जगत की उत्पत्तिपरमाणुओं के संघनन से ही होती है,और प्रलयकाल में सबकुछ इन्ही परमाणुओं मे परिवर्तित हो जाता है। इस सिद्धान्त के जनक महर्षि कणाद थे , जो निश्चित ही डाल्टन से करीब हजार वर्ष पूर्व के दार्शनिक थे।तात्पर्य यह किविज्ञान भी भारतीय दर्शन से पोषित है और साधारण जनमानस प्रयोगों पर आधारित इन सिद्धांतों पर भी विश्वात करता ही है।
लौकिक व्यवहारों में भारतीय संस्कृति एक विशिष्ट स्वरूप मे दिखायी देती है।जीवन के आरंभऔर जीवन के अंत तक के सारे क्रियाकलाप अगर लोक कल्याणार्थ प्रतीत होते हैं तो इस संस्कृति को सन्तुष्टि होती हैअन्यथा जीवन की अन्तिम परिणति मृत्यु को ही वह जीवन सत्य मान लेती है।यह जन जन में फैली संस्कृति है। विभिन्न विचारधाराएँ उसी की अंग हैं।भौतिक उपलब्धियों को जीवन यापनऔर इच्छाओं कामनाओं के लिए आवश्यक मानते हुए भी वह अन्तिम परिणति को जीवन सत्य के रूप मे स्वीकार कर लेती है।
एक अन्य विचारणीय तथ्य यह कि भारतीय संस्कृति कभी ठहरती नहीं । युगानुरूप यह विकास पाती है। मानव के बौद्धिक विकास के साथ साथ यह अपने में लिपटे धूलकणों को झाड़ते हुए नवीन चिन्तन का परिधान दे उसे विकृत अथवा असुन्दर होने से बचाती है।नवीन धारणाओं से उसे संपुष्ट करती है। अपने अध्यात्मिक सोचों के कपाटों को खोलकर रखती है। उसे नयी चिन्तनाओं से जोड़ उसका उत्थान करती है।
यह भारतीय संस्कृति का उदार स्वरूप ही है कि अऩ्तर के सारे जड़त्व रूपी कल्मष का बहिष्कार कर सारे विश्व की संस्कृति के साथ जुड़ने का गौरव पाती है , साथ ही अपनी सांस्कृतिक आत्मा को भी अक्षुण्ण रखती है।यों हम कह सकते हैं कि यह अपने विशिष्ट स्वरूप मेंमानव से जुड़ी सभी चिन्तनाओं से जुड़ी हुई है। यह विशेष रूप से एक आर्य संस्कृति है।
यह एकेश्वरवादी भी है,बहुदेववादी भी है। यह नास्तिकता को भी प्रश्रय देती है ।यह कन्फ्यूशियस के सिद्धान्तों को भी मानता है यह ताओवादी भी है। यह जैन धर्म केसिद्धांतों से भीविरोध नहीं रखता, बौद्ध धर्म सेभी कोई विरोध नहीं रखता। यह उन समुदायों को भी प्रश्रय देता है जिनका सम्बन्ध ओझा गुनी, पाहन आदि से युक्त आदिवासी समुदाय से माना जाता है। वैदिक संस्कृति इन्हें भी अपने में समाहित कर लेती है।भूत प्रेतादि , विषैले जीव जन्तुओं से आहत होने पर झाड़फूँक कर उपचार करनेवाले भी इस भारतीय संस्कृति से जुड़े लोग हैं। यह विशाल हृदया संस्कृति है। हम इसे हिन्दू कहें या आर्य, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता।
जैसा कि पूर्व में ही कहा गया है कि जो इन विशेषताओं से युक्त इषत् आध्यात्मिक तथ्यों से जुड़े लोग है ,वे आर्य हैं और इसके विपरीत प्रकृति वाले लोग अनार्य हैं। वेदों में सदैव अनार्यों से बचाने की प्रार्थना अग्नि, इन्द्र वरुण व अन्य देवों से की गयी है। उनकी मारक शक्ति का आह्वान किया गया है। क्योंकि ये अनार्य अध्यात्मिक कार्यों को महत्व नहीं देते थे ,उसे अपने दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं बनाते थे ,न ही दान कर्म आदि से उसमे सहयोग ही करते थे। वे अनुदार थे। वे एक भौतिकवादी जीवन जीते थे। समाज के लिए भी उपयोगी नहीं थे। ये पणि थे, दस्यु थे, असुर थे। दैवीय प्रकृति के लोगों से इनका सदैव वैचारिक ,संग्राम छिड़ा रहता था।आर्य जीवन शैली के लोग इनसे भयभीत थे। वे भारतीय मूल संस्कृति से दूर हो चुके थे। आज के शोधों पर आधारित विचार उन्हें भारत के इर्द गिर्द के प्रदेशों से आया हुआ मानता है। संभव है पूर्व मे ये आर्य शैली से जुड़े हों फिर घोर भौतिकतावादी दृष्टिकोण होने के कारण मार्ग से भटक गये हों। वैदिक काल में आर्यों अनार्यों के बीच एक युद्ध की चर्चा है। यह कितना विश्वसनीय है कहा नहीं जा सकता पर ऋचाओं में देवों से बार बार युद्ध मे विजयी बनाने की प्रार्थना की गयी है ।यह दाशराज्ञ के नाम से जाना जाता है।राजा सुदासऔर पाँच अन्य आर्य राजाओं तथा सुदास के तथाकथित दासों के मध्य हुआ था । ये प्रमुख रूप से अनु ,द्रह्यु तुर्वसु और यदु गण थे ये सब आर्य थे पर भ्रष्ट अथवा विदेशी भाषा बोलने वाले थे ।आर्य और अनार्य का भेद उनकी अपरिष्कृत भाषा के कारण किया गया।ये मूल वैदिक संस्कृति से दूर हो चुके थे अतः ये पतित आर्य अथवा अनार्य मान लिए गए।
आर्य शैली से भटके हुए लोगों के साथ सदैव युद्ध लड़े गये। हमारा सांस्कृतिक इतिहास पुराणों केमाध्यम से इसी तथ्य को पुष्ट करता है।त्रेता का राम रावण युद्ध, ,द्वापर का महाभारत सबों का मौलिक उद्येश्य एक ही रहा। सच पूछिए तो यह युद्ध सनातन है।भटकना कमजोर मानव प्रकृति का प्रमाण है।हर युग में अर्थ और काम के वशीभूत होकर जो मानव- लक्ष्य को विस्मृत कर देते हैं,मानवता केधर्म से दूर हो जाते हैं वही अनार्य हैं।इस युद्ध में अनार्य संस्कृति सदैव हारती है। यह भारतभूमि का वैचारिक सांस्कृतिक युद्ध है।इसी भारतीय समुदाय के मध्य के दैवीय व्यक्तित्वों और शक्तियों के माध्यम से यह संस्कृति सदैव फूलती फलती और रक्षित होती रही है। यह सनातन संस्कृति हैः यह विश्व के किसी भी कोने के मानव को प्रथमिकता देते हुए इस संस्कृति की रक्षा के लिए अपनी प्रतिबद्धता भी प्रदर्शित करती है। आज भारत को पूरे विश्व में मिलता सम्माऩ भारत की इस विशेष संस्कृति के ही कारण है जो विश्व में सांस्कृतिक क्रान्ति लाने की चेष्टा में पूरी शक्ति से निरत है।
आशा सहाय