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वर्तमान का क्षण : ललित पारिमू

मनुष्य अगर अपने दैनन्दिन कार्यों पर एक पैनी नज़र दौड़ाए तो वो इस निष्कर्ष पर पोहोंच सकता है कि  वो अपने दिन का अधिकतम समय भविष्य और भूत काल में ही बिताता है। वर्तमान क्षण से उसका सम्बन्ध कम ही बना रहता है । और जो दिन भर में उसे थोड़ा सा सुख और आनंद मिलता है वो जाने अनजाने वर्तमान क्षण को पूरा जीने से मिलता  है।

कोई भी कार्य यदि पूरी तन्मयता से किया जाए  तो वर्तमान क्षण में जिया जा सकता है।

                         अक्सर होता क्या है, जो भी हमें करना होता है ,उसकी परिकल्पना पहले भीतर मन में  बनती है और फिर उसपर अमल होता है। ये यंत्रवत होता है और मनुष्य का  इसमें  कोई अपना बड़ा योगदान नहीं है। जैसे सुबह नहाना है या नाश्ता करना है तो उससे जुड़े विचार पहले मन में आएँगे और उसके बाद जब नहाने या नाश्ता करने का समय आएगा, वो कार्य किया जाता है। मज़ेदार बात ये है कि  जब मनुष्य नहा रहा होता है या नाश्ता कर रहा होता है तो अक्सर विचार फिर कहीं और चले जाते हैं । या तो दिन भर क्या क्या ज़रूरी काम करने हैं उनपर वो मन ही मन सोच विचार करता है या फिर जो कल या परसों कुछ ज़रूरी घटनाएँ हुई ,उनको फिर से जीता है और उसमें कुछ नया भी जोड़ लेता है। कहने का मतलब यही है कि  वो फिर उस वर्तमान समय  से दूर हो जाता है। बोहोत कम बार ऐसा होता है कि  मनुष्य नहाते वक्त सिर्फ़ नहा रहा होता है या नाश्ता करते वक्त सिर्फ़ नाश्ता कर रहा होता है और जब जब ऐसा होता है वो वर्तमान क्षण के काफ़ी नज़दीक आ जाता है। इसी वजह से उसको उस कार्य का थोड़ा सुख भी मिल जाता है ।

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इससे ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि  जब भी कोई कार्य पूरे होश में किया जाए और इस तरह से किया जाए कि शरीर, मन और बुद्धि उसी कार्य में लिप्त हैं तो हमें वर्तमान का सुख सहज ही मिल सकता है।

पर ये काम आसान है नहीं। इसकी आदत डालनी पड़ती है ,अभ्यास करना पड़ता है। अभ्यास ये कि दिन भर जितना सम्भव हो ,जो भी काम किया जाय उसे पूरे होश से किया जाय । जैसे खाना खा रहे हों तो खाने की पूरी प्रक्रिया को होश पूर्वक जिएँ । चल रहे हों तो ध्यान पूरी तरह से चलने पर रहे । टोटल अटेन्शन कह सकते हैं इसे। ध्यान भटकने की कई वजहें हो सकती हैं और उनपर धीरे धीरे नियंत्रण पाया जाय ।

टोटल अटेन्शन को अपनी  आदत में शामिल करना होगा।  अपने sense organs और motor organs को ज़्यादा activate करना होगा। आँख से जब भी देखें तो ऊपर ऊपर से ना देखें । हमेशा कोशिश ये हो कि  जहां देखने की क्रिया हो रही है वहाँ आसपास की जगह को भी और देखें। नयी दृष्टि मिलेगी।

ठीक यही चीज़ कान के साथ करें और दूसरी इंद्रियों के साथ भी। हाथों से जब कोई चीज़ पकड़ें तो ऐसे पकड़ें कि  आपको स्पर्श का सुख महसूस हो। खाते पीते समय भी ये देखें की विचार उसी खाने पर केंद्रित हैं और दूसरे विचारों को ज़्यादा बढ़ावा ना दें। उस समय ज़्यादा बातचीत भी ना करें।

इंद्रियों को मन के द्वारा नियंत्रित करने की कोशिश करनी पड़ती है। दिन में कई बार ऐसी अवस्था आती है जब इंद्रियाँ अलग काम करती हैं और मन

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अलग। इस अवस्था से बचना होगा। इंद्रियों और मन को एक दिशा में ले चलने की ज़रूरत है तभी वर्तमान के क्षण के नज़दीक रहा जा सकता है। मन एक जटिल यंत्र है और उसके कई चेम्बर्ज़ हैं। मन का एक भाग इंद्रियों के साथ लिप्त रहता है, जाने अनजाने। एक भाग लगातार कल्पना करता

रहता है और कल्पनाएँ वाजिब और ग़ैर वाजिब दोनो तरह की होती हैं। कुछ कल्पनाएँ शेख़ चिल्ली की कल्पनाएँ जैसी होती हैं और उनपर आसानी से रोक नहीं लगाई जा सकती। मन का एक भाग सिर्फ़ मन की क्रियाओं को देखता रहता है और मन का एक भाग जानता है कि वो है। हम हैं ,  हमारा अस्तित्व है , ये बात मन का  एक हिस्सा  जानता है और उसकी खबर देता है।

वर्तमान का क्षण बहुमूल्य क्षण है और इसे गवाना नहीं चाहिए।

काल या समय के प्रवाह में वर्तमान का एक विशिष्ट स्थान है । भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल तीनों को लेकर काल या समय अपना कार्य करता है। हालाँकि समय के पार का भी जगत है जो आध्यात्मिक क्षेत्र के भीतर आता है पर अभी उसका ज़िक्र नहीं करेंगे क्यूँकि लॉजिकल माइंड से उसे समझा नहीं जा सकता।

मनुष्य का  स्वाभाविक दोष ये हो जाता है कि  वो ज़्यादा समय भूतकाल और भविष्यकाल में बिताता है। जब  ऐसा होता है किसी के भी साथ, तब मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ना शुरू होता है।

भूतकाल से जुड़ी हमारी नकारात्मक शक्तियाँ और भविष्य की चिन्ताएँ , जब मन इसपर ज़्यादा केंद्रित होना शुरू होता है तो वर्तमान से हम दूर होने लगते हैं।

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भूतकाल हो चुका है , वर्तमान अभी है और चल रहा है और भविष्य अभी होना है।

 जो हो चुका है उसका कुछ नहीं किया जा सकता और भविष्य में  क्या होने वाला है इसका भी दावे के साथ कोई नहीं कह सकता। लेकिन हाँ, वर्तमान में कुछ ज़रूर किया जा सकता है जिससे भूतकाल और भविष्य की चिंताओं से मुक्ति भी मिल सकती है।

भूतकाल में जो कुछ हुआ है उससे मनुष्य को ,समाज को ,देश और सभ्यता को ये सीख लेनी चाहिए कि  ग़लतियों को ना दोहराया जाए। स्वाभाविक तरीक़े से भूतकाल का जब भी विश्लेषण किया जाता है तो ये निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि  क्या ग़लत हुआ और क्या सुधार होना चाहिए था। लेकिन यदि मनुष्य या समाज या देश, भूतकाल में हुई ग़लतियों से कुछ भी नहीं सीख पाता तो ये दुर्भाग्यपूर्ण बात ही कही जाएगी।

भूतकाल को हुबहू फिर से नहीं जिया जा सकता क्यूँकि काल का प्रवाह आगे बढ़ जाता है हालाँकि ये सच है कि काल भी एक चक्र की तरह घूमता है लेकिन पुराना बिलकुल पहले के जैसा बन के आए ऐसा नहीं होता। काल चक्र वर्तुल ज़रूर है लेकिन अपने साथ कुछ नयापन लिए रहता है।

क्या भूतकाल से पूरी तरह से मुक्त हुआ जा सकता है ?

 साधारण तौर से देखे तो नहीं ,ये सम्भव नहीं  है। समय जब तीनो  आयाम को लेकर है तो फिर भूतकाल अपना स्थान बनाए रखेगा। हाँ , आध्यात्मिक

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 साधना से जब काल के पार ज़ाया  जाता है तब ये सम्भव होता है।

समय के भीतर रहते  हुए भूतकाल की अवधी को  कम ज़रूर किया जा सकता है। और ये सीख लेते हुए काम करना पड़ेगा कि  हमें भूतकाल में की गयी ग़लतियों को फिर से होने नहीं देना है। इसकी कोशिश ज़रूर करनी है।

मन जब भूतकाल में विचरण करता है तब सुख और दुःख, दो तरह के  सामान्य अनुभव होते हैं। वर्तमान के दौर में जब कष्ट के दिन आते हैं, तब भूतकाल में बिताए गए ख़ुशी के और उमंगों भरे दिन याद आते हैं जो थोड़ी प्रसन्नता  दे जाती हैं। ये स्मृति में मौजूद उन तरंगों की वजह से होता है जो मन के अचेतन अवस्था में हैं।

साथ ही साथ , भूतकाल में मौजूद अपनी असफलताएँ , दुःख और अवसाद भी बार बार विचारों और भावनाओं के रूप में मन को झकझोरते रहते हैं। ये विचार और भावनाएँ मनुष्य की रोज़ी रोटी और प्रेम सम्बन्धों के दायरे से ही जुड़े हैं। आज कोई नया रिश्ता बना और उसमें कोई कड़वाहट आयी तो मन फ़ौरन भूतकाल में चला  जाएगा और वहाँ उस प्रकार के रिश्ते से मिले दुःख को फिर से जाग्रत कर देगा।

ये भी स्मृति में मौजूद उन तरंगों की वजह से होता है जो अचेतन अवस्था में हैं।

इसके अलावा व्यक्ति, समाज और देश के भूतकाल में हज़ारों घटनाएँ ऐसी होती हैं जो बार बार  याद आती हैं और ऐसी घटनाएँ ज़्यादातर अपमान ,

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आर्थिक संकट, बीमारी, मृत्यु, हादसे इत्यादि से जुड़े होते हैं।  वो दृश्य ना सिर्फ़ हुबहू मन में घूमते हैं बल्कि कई बार मन उन दृश्यों को नए तरीक़े से बनाने की क्रिया में लग जाता है। जो कहना चाहते थे वो मन ही मन कह देना और अपने अहम को संतुष्ट करना, ये एक कोशिश लगातार होती रहती है लेकिन मूल  घटना भूतकाल से ही सम्बंधित रहती है।

मिसाल के तौर पर दस साल पहले किसी से कोई झगड़ा हुआ था और उस समय आपने बोहोत सी बातें नहीं कही मगर कहना चाहते  थे और हो सकता है डर के मारे या संकोच के कारण ना कह सके हों। अब ,,जब वो घटना याद आएगी तो मन ही मन उन बातों को भी कहा जा सकता है जो रह गयी हों। इस तरह से भूतकाल सक्रिय रहता है और मन में अपना स्थान बनाए रखता है। जब व्यक्ति बार बार भूतकाल की घटनाओं को जीता रहता है तो मन का एक हिस्सा पूरी तरह से या ठोस तरीक़े से भूतकाल की कुछ विशेष द्र्श्यों के साथ चिपक जाता है और फिर उसे आसानी से मुक्त नहीं किया जा सकता। इससे  कुछ ख़ास क़िस्म की धारणाएँ  और विचार मज़बूत हो जाते हैं  जो यदि ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ गए तो व्यक्ति विक्षिप्त भी हो सकता है। यही अवस्था समाज और देश के साथ भी होती या  हो सकती है। बूढ़े व्यक्तियों के ऊपर ये इल्ज़ाम अक्सर लगाया जाता है कि वो अभी पुराने जमाने में ही जी रहे हैं और अपने भूतकाल से ही सम्बंधित हैं।

                                                           भविष्य, समय का वो भाग है जो अभी होने वाला है, हुआ नहीं है और वर्तमान और भूतकाल से जुड़ा हुआ है। भविष्य भी, आशा और निराशा, सुख और दुःख, आकर्षण और विकर्षण, इन दोनो

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तरह के भावों और विचारों को लेकर मौजूद रहता है। इसके अलावा कल्पना की  अपनी विशेष भूमिका भी बनी हुई  होती है  जो लगातार सक्रिय रहती है। भविष्य वो है जो हम चाहते हैं या हमें चाहने के लिए मजबूर होना पड़ा है, पारिवारिक दबाव या सामाजिक दबाव के कारण। भविष्य की सुखद कल्पना सुख का निर्माण करती है जो कार्य करने की प्रेरणा देता है। निराशावादी कल्पना आलस्य और तंद्रा का निर्माण करती है जिस वजह से  अकर्मण्यता जन्म लेती है।

साधारण तौर से  , भविष्य को लेकर ही वर्तमान को निर्माण करने की कोशिश मनुष्य द्वारा होती है। अक्सर भविष्य में मिलने वाले सुख की कल्पना से मनुष्य वर्तमान में मौजूद दुःख और तकलीफ़ को सहने की शक्ति पाता है और भविष्य में मिलने वाले दुःख की वजह से शक्ति हीन हो जाता है।

देश और समाज में उत्साह और उमंग भरने के लिए भी भविष्य में मिलने वाले सुख और शांति की बात करनी  पड़ती है और ऐसे सपने देखने और दिखाने पड़ते हैं। समाज  नेता या समाज गुरु का काम भी यही होता है।

भविष्य ना हो तो जीवन दुःख और अवसाद से भरा रह सकता है और मनुष्य या समाज भूतकाल से चिपका रह सकता है जो घातक है। समय का प्रवाह ऐसा बना है कि भविष्य अपने आप आ जाता है। ये काल की खूबी है।

भूतकाल और  भविष्य काल यदि ज़रूरत से ज़्यादा अनुपात में आ  जाए तो वर्तमान को पूरा पूरा नहीं जिया जा सकता।  ये ज़रूरत से ज़्यादा अनुपात क्या है? इसमें नकारात्मक कल्पना की भूमिका ज़्यादा है। सकारात्मक

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कल्पना या यथार्थ कल्पना उतना ही भविष्य का निर्माण करेगी जितना सम्भव है या आवश्यक है और प्रकृति की नियमों के अनुकूल है। कल्पना शक्ति एक विशेष शक्ति है जिससे मनुष्य का मन लगातार सक्रिय रहता है। मगर ये सकारात्मक और नकारात्मक दोनो ही दिशाओं में काम करती है।

सबसे पहले मनुष्य को नकारात्मक  कल्पनाओं को कम करना होगा, अपने मानसिक बल से और ये बल उसे वर्तमान क्षण में जीने से मिल जाता है। मान लो, एक व्यक्ति जो की मध्यम वर्ग का है और उसे कुछ समय किसी अमीर मित्र के यहाँ रहने का मौक़ा मिलता है जिसकी जीवन शैली देख कर वो दंग रह जाता है और स्वाभाविक रूप से ईर्ष्या से ग्रस्त होकर नकारात्मक चिंतन करना शुरू करता है। फिर बाद में खुद को दिलासा देने के लिए उस मित्र के जैसा अमीर बनने का सपना भी देखता है। अब यही चिंतन नकारात्मक कल्पना शक्ति से सक्रिय हो उठी है जिसपर शुरू से ही नियंत्रण रखना आवश्यक है अगर उस को वर्तमान क्षण के नज़दीक रहते हुए आनंद में रहना है। अब यहाँ ये सवाल भी उठता है कि  क्या मनुष्य सपने ना देखे? अपने रुपए पैसों की स्तिथी को मज़बूत करने की इच्छा ना रखे? इच्छा ना होगी तो उस पर चलने की प्रेरणा भी कैसे आएगी?

यहीं पर विवेक का अभ्यास करना होगा जिससे ये निष्कर्ष निकलता है कि  सपने वही देखें जाएँ जो सम्भावना के दायरे में हों। शेखचिल्ली की तरह सपने देखने से खुद को बचाना होगा। उन सपनों का कोई मूल्य नहीं है और वो मनुष्य की मानसिक शक्ति को कम करती है। मन को यदि एक सुंदर  बगीचे की तरह बनाना  है तो आलतू  – फ़ालतू झाड़ झंगाड़ को हटाना होगा। वो आएँगे

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ज़रूर लेकिन उनकी सफ़ाई करते रहना होगा।

जिस समय मन किसी भी नकारात्मक चिंतन में लिप्त हो रहा होता है फ़ौरन मन को किसी सकारात्मक कार्य में लगाना होगा या सकारात्मक चिंतन शुरू करना होगा। उसके लिए होश में रहने का अभ्यास ज़रूरी है जिसकी वजह से मनुष्य वर्तमान क्षण के क़रीब आ सकता है। मन, बेलगाम घोड़े की तरह कहीं और जा रहा हो तो उसको सम्भालते हुए किसी सार्थक कार्य को करते हुए वर्तमान में ही जीने का प्रयास करते रहना होगा।

अब ये देखते हैं कि  असल में वर्तमान का क्षण है क्या? मनुष्य तो वैसे सत्तर – अस्सी साल जीता है लेकिन हर रोज़ जीने के लिए उसे २४ ही  घंटे मिलते हैं जिसका उसे पूरा पूरा इस्तेमाल करना आना चाहिए। मगर इन २४ घंटों में भी तो भूतकाल , वर्तमान काल और भविष्य काल मौजूद है। एक घंटे के भीतर भी काल के तीनों आयाम हैं और फिर एक मिनट में भी और एक सेकंड में भी और एक नानों सेकंड में भी तीनों हैं। 

साधारण जीवन में सिर्फ़ वर्तमान क्षण को पकड़कर जीना लगभग असम्भव है क्यूँकि हम काल के अंदर जी रहे हैं और काल भूत, वर्तमान और भविष्य,  तीनो की वजह से ही कार्य करता है। ये सच है , ज़्यादा अर्थपूर्ण जीवन वर्तमान के साथ रहने से ही होता है और एक बेहतर जीवन जीने के लिए मनुष्य को वर्तमान समय का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करना चाहिए।  इसका मतलब है लगातार कुछ ऐसा कार्य करते रहना है जो मन को और शरीर को कुछ मेहनत करने के लिए बाध्य करे।विचारों का प्रवाह बोहोत आसानी से भूत और

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भविष्य की तरफ़ खिंच जाता है और इसमें कुछ ख़ास परिश्रम नहीं करना पड़ता लेकिन वर्तमान में मन को बांधने के लिए थोड़ा परिश्रम लगता है। यही वजह है ,ज्ञानी लोगों ने कर्म को बोहोत महत्वपूर्ण बताया है। कर्म यानी सिर्फ़ काम नहीं बल्कि होशपूर्वक काम जिससे वर्तमान क्षण के नज़दीक रहा जा सकता है ।

यदि २४ घंटे मनुष्य पूरी तन्मयता से वर्तमान के क़रीब रहे तो उसके जीवन की धारा बादल सकती है और वो उस कश को पा सकता है जो समय के पार है। कभी ऐसा हो सकता है कि काल के तीनों आयाम ठहर जाएँ और वो काल के पार हो  जाय, जिसे समाधि कहते हैं।

वर्तमान क्षण के नज़दीक रहने का सबसे बड़ा लाभ यही  है कि  मनुष्य समाधि को उपलब्ध हो सकता है जो सुख दुःख के पार  है। जब तक वो काल या समय के भीतर रहेगा तब तक वो अतृप्त  ही रहेगा और जब जब वो वर्तमान क्षण के क़रीब रहते हुए समाधि को पाता जाएगा तब तब तृप्त होता जाएगा।

इसलिए वर्तमान में जीना ज़रूरी है और उस वर्तमान क्षण को पकड़ने की कोशिश करते हुए अखंड सत्ता को पाने का प्रयास करना होगा।                                                        

ललित पारिमू

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