(राजनीतिक सफरनामा)
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
सबकी अपनी-अपनी किस्मत होती है दीदी के पैर की भी अपनी ही किस्मत है । चोट खाया पैर बड़े-बड़े पोस्टर-बेनरों में पूरी आभा के साथ दिखाई देने लगा है । जहां कल तक पश्चिम बंगाल की गलियों में चुनाव चिन्ह वाले पोस्टर चमक रहे थे अब वहां टूटे हुए पैर की फोटो दिखाई दे रही है । दीदी के पैर में चोट आ गई, अब वह कैसे आई इसकी तो जांच हो रही है पर चोट आ गई इतना तो सच है । उनकी चोट खाई टांग की फोटो सारी तस्वीरों में भारी पड़ रही है । किस्मत की बात है कि चेहरे से ज्यादा पैर की पूंछ-परख हो रही है । सच तो वह ही होा है जो दिखाई देता है और संवेदना भी तब ही उपजती है जब चेहरे पर दर्द दिखाई देता है । जाहिर है कि ममता जीे प्रति संवेदना के भाव तो जाग्रत हो रहे होगें । वैसे भी वे अपनी पार्टी की लगभग अकेली नेता हैं । एक नेता और बहुत बड़ा क्षेत्र उनको तो भागमभाग करते रहना होगा । अब वे टाइसाइकिल पर बैठकर चुनावी सभायें करेगीं जो उन्हें इस हालत में देखेा उसकी संवदेना भी जाग्रत होगी ही । वैसे भी भाजपा के चक्रव्यूह में वे घिरी दिखाई दे ही रही हैं । ममता जी को मंच से दुर्गासप्तशती का पाठ कर यह सिद्ध करने के मजबूर होना पड़ा कि वे वाकई हिन्दुवादी संस्कृति का अंग हैं । अकेली ममता और सामने ढेर सारे नेता, कुरूक्षेत्र का मैदान तैयार हो चुका है । ममता जी को एक बड़ी फौज को हराना है जाहिर है कि सब कुछ आसान तो नहीं होगा । पश्चिम बंगाल का चुनाव तो अब तक हुए चुनावों का सारा रिकार्ड ही तोड़े दे रहा है । लगता नहीं है कि इस चुनाव के बाद कोई एकाध रिकार्ड बगैर टूटे रह पायेगा । हम तो अभी तक यही समझते रहे हैं कि चुनाव याने लोकतंत्र का महापर्व , इसे उत्साह और उत्सुकेता के साथ मनाया जाना चाहिए पर पश्चिम बंगाल ने बता दिया कि इसे तो ‘‘आर-पार’’ की लड़ाई के रूप में भी मना लेना चाहिए । सत्ता की कुर्सी चाहिए, किसी भी शर्त पर चाहिए साम, दाम, दंड, भेद से भी ज्यादा कुछ करके कुर्सी चाहिए । ऐसी तड़फ की कुर्सी न मिली तो मालूम नहीं क्या हो जायेगा । लोकतंत्र का तो सीधा सा सिद्धांत है कि आप अपनी बात जनता को बतायें और उसे सोचने का अवसर दें, वह जो सोच लेगी उसको वोट देकर कुर्सी पर बिठा देगी । पर ऐसे पवित्र भाव और आदर्श सिद्धांतों वाला युग खत्म हो चुका है । जनता को समझाने और मनाने का दौर खत्म हो चुका है, हड़काने का दौर चल रहा है । वेैसे तो वे जानते हैं कि उनके पास कोरी कल्पनाओं का खांका खींचने से ज्यादा कुछ है नहीं ऐसे में बेकार में जनता का टाइम क्यों खराब किया जाए सो वे सीधे-सीधे ही कह देते हैं कि ‘‘भैया सीधे-सीधे वोट दे देना वरना वोट लेना तो हमें आता ही है’’। जनता भी अब कुछ भागों मे बंट चुकी है वह या तो इस दल में है या उस दल में । जो जिस दल में होता है वह अपने दल के हिसाब से ही गणित जमाता है । किसान आन्दोलन करने वाले नेता भी पश्चिम बंगाल पहुंच गए हैं वे वहां की जनता को बतायेंगें कि किसान बिलों में कितनी सारी खामियां हैं । वे तो यह भी बोलेगें कि भाजपा को वोट मत देना पर किसे देना है यह वे नहीं बोलेंगें यह उनकी राजनीतिक मजबूरी है । उनको अपने आन्दोलन की चिन्ता है उस आन्दोलन की चिन्ता अब सरकार को जरा सी भी नहीं हैं ‘‘बैठे रहो…..जब तक बैठना है’’ सरकार ने अपना श्रंगार मूक-बधिर वाला कर लिया है ‘‘न तो हमें कुछ दिखाई दे रहा है और न ही सुनाई ’’ । सरकार चुनाव में उलझी है और किसान पिछले चार महिनों से दिल्ली की बार्डर पर अपना घरोंदा बनाए हुए बैठी है । वैसे इस बात पर तो चिन्ता करना चाहिए कि सड़कों पर बैठना किसी को अच्छा नहीं लगता पर किसान बैठे हैं याने उन्होने तय कर लिया है कि ‘‘करो या मरो’’ की उस नीति पर ही चलेगें जिस नीति का आव्हान स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ किया गया था । जब सारे रास्ते बंद दिखाई देने लगते हैं तब यह नारा उत्साह भी देता है और आन्दोलनकायिों की एकजुट करने में मदद भी करता है । भारत का स्वतंत्रता संग्रमा वर्षों तक चला, तात्कालीन अंग्रेज सरकार ने उसे नेस्तानाबूद करने के अनेकों प्रयास किए पर वह खत्म नहीं हो पाया पर आखिर कितना लम्बा चलेगा आन्दोलन तब तय किया गया कि ‘‘करो या मरो’’ । सारे आन्दालेनकारी चाहे वे गरम दल के हों अथवा नरम दल वाले एक साथ खड़े हो ए । सभी ने हुंकार भरी और उसका सुखद परिणाम भी मिला । ‘‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’’ के 1942 मंे हुए आन्दोलन ने भारत की स्वतंत्रता की नींव रखी । देश की जनता इस मुकाम पर आ चुकी थी कि उसे आजादी हर हालत में लेना ही है । महिलायें, बच्चे और पुरूष तो सभी लोग अग्रिम पंक्ति में आकर खड़े हो गऐ । अंग्रेज सरकार इस आन्दालन से घबरा गई और भारत की आजादी की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी अंततः 1947 में हमें यह आजादी मिल भी गई । जनता तो भूल ही चुकी है कि हमारी आजादी किन संघर्षों के साथ मिली है । हमारे पुरखों ने कितना बलिदान दिया है । किने लोगों ने यातनाओं को सहन कर जेल में ही दम तोड़ा । कितने लोगों ने सड़कों पर अंग्रेजों की मार को झेला, किनों को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया । वो सब कुछ घटा जो इम्तहां होती है । देश कर वर्तमान पीढ़ी ने स्वतंत्र भारत में ही अपनी आंखें खोली हैं इसलिए उन्हें उस पीड़ा और कठिनाई का अंदाज नहीं है । प्रधानमंत्री जी ने स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ मानो के लिए 75 सप्ताह का अमृत महोत्सव प्रारंभ किया है । यह अच्छा है कम से कम हम एक बार फिर अपनी आजादी के संघर्षों की दांस्तां को याद कर लेगें । कितने बलिदानोें और कितनी यातनाओं के दौर से गुजरा है यह आन्दोलन इसे याद कर लेगें । दांडी यात्रा के मायने ढूंढ़ लेगें और ‘‘जरा याद करो कुर्बानी’’ के बोलों के भावार्थ को अपने अन्तरमन में उतार लेगें । यह अमृत महोत्सव तो लम्बा चलेगा और हम सभी इस अवधि में आजादी की गाथाओं से अपने आपको अभिभूत करते रहेगें । हो सकता है हमें याद आ जाए कि आजादी के वास्तविक मायने क्या होते हैं ।