राजनीतिक सफरनामा
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
अब उत्तर प्रदेश की राजनीति ‘टोपियों’’ पर जाकर उलझ गई है । राजनीति को तो किसी न किसी बिन्दु पर जाकर उलझना ही था सो वह टोपी पर उलझ गई । वैसे तो राजनीति को उलझने के लिए विकास नाम की चादर मिली हुई है पर यह चादर फट चुकी है और कहा जाता है कि ‘‘फटी चादर में टांग नहीं अड़ाना चाहिए’’ सो वे अपनी लम्बी टांग को छोटी सी फटी चादर में उलझाने की बजाए टोपी में उलझा देना ज्यादा बेहतर समझने लगे हैं । टोपी वो भी लाल…..दूर से ही चमकती है और केवल चमकती नहीं है ‘‘कुछ संकेत देती हुई सी भी लगती है’’ । इस संकंेत को तो समझना होगा इसलिए ही तो हाथों मंें तीर कमान संभाल लिए और जिव्हा पर आग्नेय अस्त्र अब टोपी देख तेरा क्या हाल होता है । टोपी सहम गई, सरे रंग की टोपियां सहम गई, बताओ साहब टोपी को निशाने पर ले लिया, पर ले लिया तो ले लिया । टोपी तो वर्षों से सिर की शोभा बढ़ाती रही है । आजादी के पूर्व भी आजादी के बाद भी । गांधी टोपी ने लोकप्रियता हासिल की फिर जयप्रकाश नारायण की टोपी आ गई । बाद में कुछ सालों तक सिर की टोपी गायब रही पर अन्ना आन्दोलन ने इस टोपी को फिर से जीवित कर दिया । अरविन्द केजरीवाल ने अन्ना की टोपी अपने सिर पर सजा ली और दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो गए । यह टोपी का ही चमत्कार था तो टोपी की इज्जत फिर बढ़ने लगी । जिसको चमत्कार चाहिए वह टोपी सिर पर सजाने लगा । टोपी बनाने वाली बंद पड़े यंत्रों की रौनक फिर से लौट आई । बाजार में भांति-भांति की टोपियां दिखाई देने लगीं, सफेद, काली, लाल, केसरिया, हरी…जिस भी प्रकार की टोपी चाहिए उपलब्ध है । अब नेतागिरी के लिए साफ-स्वच्छ कल्फ लगे लम्बे कुरता-पायजामा के साथ ही साथ टोपी की आवश्यकता महसूस होने लगी । टोपी में यह सुविधा है कि उस आम व्यक्ति को जिसे किसी भी टोपी से काई मतलब नहीं होता उसे टोपी देखकर यह समझने में समय नहीं लगता कि कौन सा प्रहसन खेला जाने वाला है । आम आदमी के नाम पर, आम आदमी से दूर, खेले जाने वाले इस प्रहसन के पात्रों के सिर पर सजी रंग-बिरंगी टोपी को देखकर आम आदमी अंदाजा लगा लेता है कि इस नाटक का नाम क्या होगा और इस नाटक का सुखांत क्या होगा क्योंकि ऐसे नाटकों का दुखांत तो होता ही नहीं है, दुखांत तो स्थाई रूप से आम आदमी के हिस्से में आ चुका होता है और अभिनय करने वाले पात्र आम आदमी का जीवंत चित्रण कर लेने के बावजूद भी आम आदमी की तरह न तो आंसू बहा पाते हैं और न ही उनके चेहरे की उदासी को अपने चेहरे पर ला पाते हैं । वैसे भी मेकअप लगे चेहरे पर उदासी, परेशानी, पीड़ा और दर्द कैसे उभर सकता है । उत्तर प्रदेश की राजनीति में अब टोपी युद्ध ने दस्तक दे दी है । यह युद्ध कला नई है सो समझने में मुश्किल हो रही है । वैसे भी हर बार के वोट युद्ध में नई-नई कलाओं को आजमाना ही होता है । वही चुनाव जीतने के पुराने अस्त्रों से नेता भी बोर हो चुके होते हैं और वोटर भी । इस कारण से नये अस्त्र आजमाना आवश्यक हो गया है । पश्चिम बंगाल के चुनाव में भी नए अस्त्र आजमाये गए पर वे अस्त्र खोखले साबित हुए । छोड़े तो ऐसे गये मानो कि सामने वाले का माटी में मिल जाना तय है पर अस्त्र ज्यादा दूरी तय ही नहीं कर पाए । अब बारी उत्तर प्रदेश की है । हर हाल में उत्तर प्रदेश को जीतना है तो नये तीर और नई कमान के साथ मुख पर कटु मुस्कान लिए हाजिर हैं । सबसे पहले टोपी पर निशाना साधा जा रहा है । टोपी पहने वाले के सिर के बाल दिखाई ही नहीं देते । पहले टोपी हटाओ फिर बाल गिनो और एक-एक बाल पर कई-कई प्रहार कर नेस्तनाबूद कर दो । उत्तार प्रदेश में टोपी निशाने पर है, लाल टोपी । किसान आन्दोलन वाले तो हरी टोपी पहने थे । हरियाली की हरी टोपी । इस टोपी पर कोई निशाना नहीं लग पाया । माटी से जुड़ी थी । माटी की तो खासियत यह ही होती है । हरी टोपी खतरे का सूचक नहीं होती पर वह तो खतरे का सूचक बन ही गई । कृषि बिलों को वापिस लेना पड़ा । हरी टोपी मुस्कुरा पड़ी उनका तीर निशाने पर लगा । हरी टोपी ने कमजोर नस को समझ लिया है । हरी टोपी मुस्कुराते हुए अपने -अपने घरों की ओर लौट रही है । जगह-जगह उनका स्वागत हो रहा है मानो कोई भारी जंग जीत कर आए हों….वैसे तो वे विजयी तो रहे हैं । एक समय तो लग रहा था कि वे अब गये….अब तो गए ही…पर वे नहीं गए । बैठे रहे, अड़े रहे, जमे रहे और अपनी हरी टोपी पर हाथ फेरते रहे । हरी टोपी ने चमत्कार दिखा दिया । हरी टोपी घर लौट चुकी है पर लाल टोपी अभी भी मैदान में है, वह तब तक मैदान में रहेगी जब तक उत्तर प्रदेश के चुनाव नहीं हो जाते । कुछ टोपियां मौसमी होती हैं । कुछ लोग जाड़े के दिनों में अपनी संदूक में रखी टोपियां निकाल लेते हैं, कुछ लोग बंदर टोपी भी लगाते हैं । पर इन मौसमी टोपी पर निशाना नहीं लगाया जाता है, भला ये जाड़े की टोपी भी कोई टोपी है । तेरी टोपी मेरी टोपी, तेरे सिर पर मेरी टोपी पर ,खतरा बिल्कुल नहीं । निशाना तो उन टोपियों पर लगाया जाता है जो खतरा बन सकते हैं । अरविन्द केजरीवाल की टोपी पंजाब में धूम मचा रही है । वहां भी चुनाव होना है इसलिए । टोपी वायदे कर रही है, लालीपाप टाइप के । लालीपाप मीठा लगता है ललचा देता है । सफेद टोपी चाहती है कि आम आदमी लालच में आए । एक बार लालच मेंे आ जाए तो टोपी के दिन फिर जाऐं । टोपी को अपने दिनों को फेरना है । कुर्सी चाहिए । कुर्सी पर बैठी टोपी ज्यादा चमकदार हो जाती है । टोपी को चमकदार होना है । वह पूरे पंजाब में घूम-घूमकर अपनी टोपी दिखा रही है । राजनीति ऐसे ही चलती है ‘‘तू चल मैं आया’’ । आना-जान लगा रहता है पर जब कोई बहुत दिनों तक नहीं जाता तो आने की आश लगाये बैठा परेशान होने लगता है तब वह टोपी में नुक्श निकालने लगता है । जहां-जहां चुनाव होने हैं वहा-वहां टोपी लीला चलती रहेगी । विकास की बात अब चुनाव में नहीं होती ‘‘कौन सा विकास….किसका विकास’’ बेकार की बाते हैं । बात तो यह होती है कि ‘‘भला तेरी शर्ट मेरी शर्ट से ज्यादा सफेद कैसे’’ । हम अपनी शर्ट को और सफेद करने में समय बरबाद नहीं करते हम तो सामने वाले की शर्ट को इतना गंदा कर देते हैं कि अपनी गंदी शर्ट सफेद दिखाई देने लगती है । राजनीति यह ही है इसे भले ही किसी राजनीतिज्ञ विशेषलेशकों ने नहीं बताया हो पर आम आदमी जानने लगा है । चुनाव होना है, पांच राज्यों में तो बयार अब केवल इन्हीं राज्यों में घूमेगीं शेष राज्य अपने यहां जब चुनाव की बारी आयेगी उसकी प्रतीक्षा करती रहेगें । कोरोना का खतरा भी बढ़ रहा है पर उन राज्यों में नहीं जहां चुनाव होना है, कोराना भी समझदार हो गया है । उसे मालूम है कि अपने पैर कहां रखने हैं । ओमोक्रान का खतरा है । हम लोग तो इसके पहले वाले कोरोना की मार झेल कर इतने बेदम हो चुके हैं कि अब नया कुछ झेल पाने की क्षमता रही ही नहीं है । पर कोरोना मान ही नहीं रहा है । वह आयेगा…..क्या मालूम पर अब बस करो भाई । हमें तो अपनी सतर्कता रखनी ही चाहिए । हम सरकार के भरोसे अपने आपको नहीं छोड़ सकते । सरकार ने वैक्सीन लगवा दी बाकी सुरक्षा तो स्वंय को ही करनी होगी न तो सतर्क रहें और और कमर कस लें कि इस बार कोरोना हमें नहीं, हम उसे हरा कर भगा देगें ।