कल हमने बात की दिल्ली चुनाव में भाजपा की रणनीति के बारे में | आज मैं आपको बताउँगा आप की कहानी | आप आंदोलन से निकली हुई पार्टी है, अन्ना हजारे के ऐतिहासिक जन आंदोलन का राजनैतिक प्रकटीकरण | जनलोकपाल के मुद्दे पर इस पार्टी का गठन हुआ था, हालांकि इसमें अन्ना की वैचारिक सहमति कभी नहीं रही | शुरूआत में पार्टी कुछ इस तरह चली कि इसके नेता चाहे केजरीवाल हों, कुमार विश्वास हो, संजय सिंह, किरण बेदी, मनीष सिसौदिया या फिर प्रशांत भूषण सब राष्ट्रीय नेता हो गये | पर ये सब अपने अपने जीवन में बड़े ही महत्वाकांक्षी लोग रहे, और राजनीति इन सबके लिये एक नई दुनिया थी | इनमें नंबर एक की होड़ शुरू हो गई | केजरीवाल ने एक एक कर सबको किनारे करना शुरू किया और अपनी बात को पार्टी लाईन बना दी |चूँकि सब लोग नये थे कोई भी सही तरीके से अपनी बात कभी रख न पाये, परिणाम ये निकला कि केजरीवाल धीरे धीरे पार्टी के सर्वेसर्वा हो गये | उन्हें जन समर्थन मिल रहा था, और जैसा कि नये लोगों के साथ होता है, वो पार्टी के अंदर निरंकुश होते गये, उनका अभिमान उनके सर चढ़ के बोल रहा था | पर लोगों में अभी भी कहीं न कहीं शंका व्यापत थी | केजरीवाल बनारस से सीधे मोदी को चुनौती देने पहुँच गये | पर उन्हें मुँह की खानी पड़ी | जल्द हीं उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हुआ और उन्होंने अपनी राजनीति को दिल्ली में केन्द्रित कर लिया | शुरूआती ग़लती को लोंगो ने भी नज़र अंदाज़ किया | और इसका एक बड़ा कारण ये भी रहा कि वो जनता के समक्ष अपनी गलती मानते रहे | 2015 के दिल्ली चुनाव में उन्हें अपार समर्थन मिला और यहीं से शुरूआत हुई राजनीति में उनके ओछे बयानों की, जिसने उन्हें दिल्ली में लंपट बना दिया, उनके हीं लोग उन्हें तरह तरह की संज्ञा देने लगे | फिर राज्यसभा के टिकट का सवाल हो, या पार्टी के पदों का उन्होंने अपनी मनमानी की, ये कहानी लंबी हो जायेगी अगर इनका उल्लेख करूँगा तो, ये सब कहानी सब को पता है | अपने पाँच साल के अंत में इन्हें अहसास हुआ जब 2019 के लोकसभा चुनाव हुये, दिल्ली में उनकी बुरी हार हुई | उन्हें पता चल चुका था कि अब अगर कुछ नहीं किया तो उनका जाना तय है | उनके पास बजट था उन्होंने सीधे जनता की दुखती रग को पकड़ा | पानी बिजली यातायात सब फ्री कर दिया | अब यहीं पर जनता मार खा जाती है | 90 प्रतिशत लोगों को जिन्हें जीडीपी और उस तरह की तमाम चीज़ें समझ नहीं आती उन्हें भी फ्री का मतलब अच्छे से पता है | एकबार फिर जनता उनके जद में थी | ये एक बड़ा मनोवैज्ञानिक खेल था जो केजरीवाल ने बड़े स्तर पर खेला था | लोगों फर्क नहीं पड़ता की सड़कें कैसी हैं मूलभूत सुविधाएं कैसी हैं | दिल्ली की हवा ज़हर हो रही थी पर लोग केजरीवाल के साथ थे | आम लोगों का सीधा मनोविज्ञान है, वो चीज़ें जल्दी हीं भूल जाते हैं | सो वे भूल गये वो सब वादे जो केजरीवाल ने किये थे, सबसे बड़ा उदाहरण है जन लोकपाल | एकबार फिर केजरीवाल मज़बूत स्थिति में थे और भाजपा के लिये ये बड़ी चुनौती थी कि लोगों के मनोविज्ञान को बदलें |और इसी ने उसे मजबूर किया राष्ट्रवाद के मनोविज्ञान को आगे बढ़ाने का | यह सब जो दिल्ली में चल रहा है वो मनोविज्ञान का एक अनुपम पर खतरनाक खेल है | आम लोग तो बस प्यादे हैं उनके बस में सिर्फ प्रभावित होना है | वो कभी मोदी से प्रभावित होते हैं तो कभी केजरीवाल से |दिल्ली का ये चुनाव बहुत कुछ तय करनेवाला है, मसलन भाजपा की रणनीति और आप की राजनीति | केजरीवाल इतनी जल्द हार माननेवालों में से नहीं हैं, क्यूँ जिन्होंने कुछ समय पहले जिस मोदी को खुले मंच से देशद्रोही कहा था उनकी निंदा करने से वो अब बचते हैं| एक बात जो और स्पष्ट करना जरूरी है कि उन्होंने किसी भी नेता की कभी कोई आलोचना नहीं की, वो हमेशा निंदा करते हैं | और आलोचना और निंदा में भी बहुत बड़ा फर्क है | निंदा दुर्भावना से ग्रस्त होता है जबकि आलोचना इंसान तब करता है जब वो सुधार की उम्मीद से करता है | निंदा का समाज में हमेशा नकारात्मक प्रभाव होता है जो आज हो रहा है | पूर्व में उनके द्वारा की गई निंदा हीं आज उनके गले का फाँस बन रहा है |
-अभय सिंह