सम्पादकीय (मनमोहन शर्मा ‘शरण’)
महंगाई, बेरोजगारी पर विपक्ष पहले ही आँखे तरेरी किए है, उस पर एनआरसी का विरोध, जेएनयू विवाद ने और आग में घी का काम कर दिया. लोहड़ी, मकर संक्रांति और पोंगल के त्यौहार की चमक भी मानो फीके ही पड़ गए. दिल्ली में फरवरी में विधानसभा चुनावो की तारीख घोषित हो गयी है इसलिए सभी पार्टियों ने कमर कसनी शुरू कर दी है . ‘आप’ (आम आदमी पार्टी) अपने में आश्वस्त है कि ‘दिल्ली में तो केजरीवाल ही’ पोस्टर पहले ही लगा दिए गए. पर यह सोचना और निर्णय लेना तो जनता का अधिकार क्षेत्र है. वह किसको थमाएगी दिल्ली की सत्ता की चाबी , यह तो चुनाव परिणाम में सामने आ ही जायेगा. एक बात जो मे अनुभव कर रहा हूँ कि पार्टी का नेता नहीं अब नेताओं की पार्टियाँ हो गयी है . बात की जाती रही ‘सबसे पहले देश हित’ जो अब ‘सबसे पहले अपना हित’ में परिवर्तित होती दिख रही है.
भाजपा में जब सम्भावनाये दिखने लगीं तो कांग्रेस अथवा एनी पार्टियों के नेतागण उसमे आना शुरू हो गए . यदि किसी और पार्टी में सम्भावना दिखती है तो उसी तरफ बह जाते हैं . दिल्ली के चुनावों की घोषणा होने से पूर्व ही कांग्रेस के तथा अन्य पार्टियों के नेताओं ने पाला बदलने की नीयत जग उजागर हो गयी अर्थात ‘कसमे वाडे प्यार वफ़ा सब……’ पार्टी के साथ चलने की कसमे धरी की धरी रह जाती हैं .
जिस पार्टी को व उनके नेताओं को पूरा समय कोसते रहे, उनमे कमियां निकालते रहे और जनता को गिनाते रहे फिर अचानक कौन सी विधि से वे सभी अवगुण गुणों में परिवर्तित हो जाते हैं , यह विचारणीय है ….
खैर ! बात दिल्ली की है और भारत के दिल की है तो इसका महत्त्व तो ज्यादा है ही . बीजेपी जिस रफ़्तार से अजेय रथ पर सवार थी उस पर तो अब लगाम लगती ही जा रही है . इसलिए दिल्ली जीतने का तो वह पूरा प्रयास करेगी किन्तु केजरीवाल (मुख्यमंत्री) जी ने दिल्ली की मार्किटिंग का अनुसरण करते हुए ‘फ्री’ का फंडा अपनाया, जो चल गया . एक सीमा तक पानी के साथ अब बिजली भी फ्री दी जाने लगी . उस समय बाकि पार्टियों ने उसका कटाक्ष भी किया था लेकिन अब अपने चुनावी वायदों में वे भी इसी प्रकार फ्री वाला फार्मूला अपनाने की तैयारी में हैं . कांग्रेस को हरियाणा और महाराष्ट्र में सकारात्मक परिणाम मिले जिसके चलते वह भी दिल्ली में अच्छा प्रदर्शन करने का प्रयास करेगी ……….