देवेन्द्र कुमार पाठक
अपने तीरथ धाम हैं,खेत और खलिहान।
अनिल,अनल,जल,भूमि,नभ; हैं प्रत्यक्ष भगवान।।
श्रम ही अपना धरम-व्रत,घोर तपस्या घाम।
ओला-पाला,बारिशें,बाढ़ हमारे नाम।।
इल्ली,गंधी, गेरुआ,कांसा, गाजर घास।
आवारा गोवंश ने, किया फसल को नाश।।
माघ-पूस की रात में जब चलता हिमवात।
फसल सींचते खेत की,हाड़ा-गोड जुड़ात।।
सरहद पर बेटा सजग,अन्न उगाते बाप।
उनकी सेवा,त्याग का,कोई मोल न माप।।
सर से लेकर पाँव तक, बही पसीना धार।
हुआ खेत तब जब तर, फसल उठी किलकार।।
काँधे से कांधा मिला,जुटी रही अविराम।
दीया-बाती के लिये अब घर लौटी शाम।।
खा रोटी हथपोइयाँ,पी लोटा भर नीर।
बीड़ी धुंधुआते चले,खेतिहर मस्त कबीर।।
खट से जो ताला खुला,पट से निकले प्राण।
हो पाता है कब,किसे; कहाँ मौत का भान।।
जोड़-जमा कर रख गई,रुपये लाखों-लाख।
छोड़ गयी अधबीच ही,जाती कुछ कह-भाख।।
अपनाया हमने जिसे, कर हर उसने घात।
सगे-स्वजन सब स्वार्थवश, थाम रहे थे हाथ।।
नेह न अपनों से मिला न मायके-ससुराल।
सगे-सहोदर भी रहे,सदा बदलते पाल्।।
जन मन में विद्वेष विष घोल रहे जो लोग।
उनकी भावी पीढियां क्या पाएं सुख भोग।।
यदि सिंहासन तक कहीं ,जा पहुंची यह आग।
खाक न सब कर दे कहीं,पद-मद के सुख-राग।।
यदि यूँ ही बढ़ता गया, चहुं दिशि यह युव रोष।
सम्भव हैएक दिन करे, समग्र क्रांति उदघोष।।
पद मदान्ध अंधे हुये, बहरे तानाशाह।
युवाक्रोश की ले नहिं पाये हैं थाह।।