कर कर के युग प्रतीक्षा थक जाऊंगी।
क्या पता राष्ट्रभाषा कब बन पाऊंगी।
मेरी आत्मा से वे चलचित्र बनाते,
मेरे वाक्यों से अरबों रोज कमाते,
मेरा अधरों पर नाम तक नहीं लाते,
उस फिरंगिनी बोली को गले लगाते।
सब देशों की प्रिय भाषा बन जाऊंगी,
क्या पता राष्ट्रभाषा कब बन पाऊंगी।
शिशुओं की मुझसे दूरी बना रहे हैं,
उनको विलायती तोते बना रहे हैं।
खुद पराधीनता के शब्दों को ओढ़े,
बैठे हैं मां की भाषा से मुंह मोड़े।
कर कर संस्कृत की रक्षा थक जाऊंगी।
क्या पता राष्ट्रभाषा कब बन पाऊंगी।
मेरे शहीद सुत फांसी पर लटकाए,
वह बैठी जलियांवाला लहू पचाए।
मैं प्रतिदिन झुलस झुलस कर भी जिंदा हूं,
मैं विधि के प्रावधान पर शर्मिंदा हूं।
दे दे कर अग्नि परीक्षा थक जाऊंगी,
क्या पता राष्ट्रभाषा कब बन पाऊंगी।
हिंदी दिवसों पर राष्ट्रमुकुट भी आते,
पर पदेशिन भाषा को ही पहनाते,
मेरा ये गीत दिवस इक ऐसा लाए,
हिंदी को हिंदुस्तान ताज पहनाए।
ले ले वादों की भिक्षा थक जाऊंगी,
क्या पता राष्ट्रभाषा कब बन पाऊंगी।
गीतकार अनिल भारद्वाज अभिभाषक उच्च न्यायालय ग्वालियर