Latest Updates

रसोईघर की मुहावरेदानी : डॉक्टर सरोजिनी प्रीतम

रसोईघर की पिटारी खोलकर देखिए तो लगता है, सारे मुहावरे भी यहीं पेट पालते रहे और फिर खिड़की के तांक-झांक करते हुए लोगों की जबान पर पहुंचे और सिर पर चढ़कर बोलने लगे। फिर उन्‍हें राख से मांज-मांज कर चमकाया गया और कहीं उस पर कलई की गयी और कहीं मुलम्‍मा चढ़ाया गया।

         कटोरदान की भाषा कलुछी समझती है और इसीलिए जब कटोरदान की कटोरियां मुंह तक भर आती हैं तो कलुछी दोनों हाथों से उसे उलीच कर कटोरदान का कल्‍याण करती है।

         घर की मुर्गी ज्‍योंही चौके में घुसी, वह डिब्‍बे में बंद दाल की तरह होने लगी। उसे कभी धीमी आंच पर रखा गया तो कभी तेज आग पर, लेकिन रसोई भी वह क्षेत्र है जहां हर किसी की दाल नहीं गल सकती। न गलने पर उन्‍हें दाल में कुछ काला नजर आता है और तब उसे टेढ़ी खीर भी इसी रसोई में ही जन्‍मी और अपने टेढ़ेपन के कारण तिरछी होकर गड़ गयी। दूध-दही की नदियों का उद्गम भी तो रसोई घर है। यहीं से यह गोमुखी गंगा निकलती है और रामराज्‍य के सपने साकार करती है। मूली-गाजर की तरह सब्जियां काटी गयीं और उनकी शीरनी बांटी गई।

         पानी नल से लाकर दमयंती तक के किस्‍सों में व्‍याप्‍त है क्‍योंकि नल दमयंती को सोती छोड-छाड़ कर चला गया। आज भी जिन शहरों में पानी की कमी है वहां सोती हुई दमयंतियां ऐसे ही नल द्वारा छोड़ी जाती है और उम्र भर उनके आगे पानी भरती नजर आती हैं।

         वैसे पानी ने भी कितने लोगों को पानी-पानी किया और चुल्‍लू में पहुंच कर इसने हथेलियों को समुद्र बनाया और डूबने के लिए पर्याप्‍त बनने की कोशिश करने लगा। पानी से लेकर दाल के मुहावरे, सब रसोई के क्षेत्र में ही उपजे तो टेढ़ी खीर के कच्‍चे चावलों को भी इसी पानी में पानी मिला। बर्तन भी खनक-खनक कर चूडि़यों की झंकार से होड़ लेने लगे और जब ये मांजे-संवारे गये तो दरपन के से मोर्चे बन कर उनमें भी ऐसा निखार आया जैसा कि तबीयत साफ होने पर आया करता। हथेलियों में वे मुंह दिखाई देने लगे जो प्राय: जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। ऐसे थाली के बैंगन की जब दुर्गति हुई तो भी वे बने तो सिर्फ भुरता या चटनी। और चटनी बनने के लिए ओखली में सिर देना ही पड़ता है। मूसलचंद की मार पड़ेगी तो चटनी-चटनी होंगे। लेकिन ये मूसलचंद दाल-भात के मूसलचंद से भिन्‍न जरूर होंगे, पर ये तो वही जिन्‍हें कबाब में हड्डी कह कर सम्‍मानित किया जाता है। यह हड्डी कुत्‍ते की मुंह लगी हो तब तो उसके दांतों की तेज पकड़ से छूट ही न पायेगी। वैसे दांत की पकड़ ही वह पकड़ है जो हर चीज को मजबूत से पकड़ लेती है और घसीट कर ले आती है। छत्‍तीसों व्‍यंजन बने हों लेकिन उनके साथ यदि किसी भलमानस बहन का मूंह बना हुआ मिलता है तो कोई उन छत्‍तीसों व्‍यंजनों की तरह मुंह उठा कर भी न देखेगा। और यदि इसी मुंह पर बेमोल की मुस्‍कान की मिठाई नजर आये तो बेमोल-बेभाव बिके हुए लोग  मिलेंगे। फिर आप छत्‍तीस पदार्थ न भी बनाइए तो भी घर की मुर्गी को कोई कुछ न कहेगा। वैसे घर की मुर्गी दाल बराबर होने लगी तो दाल के भाव मुर्गी से भी बढ़ गये ताकि अवमूल्‍यन और मुद्रास्‍फीति को संभाला जा सके। वैसे मुद्राओं में भी गुस्‍से की मुद्रा तो बिल्‍कुल ऐसी है जैसे दूध में उफान आता है और उसे पानी के छींटे दे-दे कर शांत किया जाता है।

         लगता है रसोई में ही रहने के कारण सारी महिलाओं ने ही मुहावरे-दानी में बात-बेबात में मुहावरे डाल-डाल बाकी लोगों के पास भिजवाये और कलुछी से उनकी कटोरियों में सांभर की तरह डाला जिसे कुछ पी गये, कुछ पचा गये, और कुछ उसमें दाल का दाना ढूंढने के लिए गोताखोर बन गये। कुछ ने इसे वर्णन का विषय बना डाला और मुहावरेदानी का सारा नमक-मिर्च-मसाला अब सबका जायका बदलने के लिए पर्याप्‍त है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *