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संतोष (लघुकथा)

    शाम होते-होते सूरज ढलने लगा। उम्मीदों के दीप बूझने लगे मगर सबको अपना-सा लगने वाला रमेश फिर कभी उन लोगों के बीच कभी नहीं लौटा जिनके लिए आधी रात को भी मुसीबत आए तो तैयार हो जाता था। गॉंव छोड़ शहर की नौकरी में ऐसा उलझा की घर बसाना ही भुल गया। गॉंव भी कभी एक-दो दिन की छुट्टी में मॉं बाबूजी से मिलने आता मगर उन लोगों से मिलने की इच्छा ही नहीं हुई जिन्होंने रमेश के साथ साहित्य के नाम पर राजनीति कर उसे बेदखल कर दिया।

        वह रमेश जो कभी कवि सम्मेलन की शान हुआ करता था, जिसके गीत दर्द बनकर ऑंखों में उतर आते थे और अकेले ही सबकी वाहवाही बटोर लेता था। दूसरे कवि चुटकुले सुनाकर मनोरंजन कर देते थे मगर रमेश की बात ही अलग है।

बड़े से बड़े कवियों को मान- सम्मान देता था रमेश। बिन बुलाए ही घर जाकर सबके हाल-चाल पूछ आता था। मगर जब बुरा वक्त आया तो सबने मुॅंह फेर लिया। अक्सर कवि सम्मेलनों में नाश्ता और रात्रिभोज भी होता था मगर रमेश को घर में मॉं के हाथों बना खाना ही पसंद था।

    अबकी बार शहर से आया तो मॉं ने जाने से रोक लिया और कहा – ‘मॉं अगली बार तुम्हें और बाबूजी को भी शहर हमेशा के लिए ले जाऊॅंगा। वहॉं सब कुछ अब अपना हो गया। यहॉं कब तक दुःख की जिंदगी काटोगे?’

‘नही रमेश! हम यही ठीक है और तेरे बाबूजी तो बिलकुल भी नहीं जाएंगे। उन्हें तो यही गॉंव की चौपाल, हुक्का-बीड़ी पसंद है।’

‘ठीक है मॉं चलता हूॅं। अब दीवाली पर ही आना होगा।’

    पहले रमेश आस-पास के गॉंव-नगर में आता-जाता रहता था। क्योंकि वहीं गॉंवों नगरों में ही तो उसकी महफ़िल जमी रहती थी। किसी को कानों-कान खबर भी नहीं हुई इस बार कब आया और कब चला गया ?

    दिन इसी तरह सालों में बदलने लगे। शहर में एक दो कवियों से परिचय भी हुआ मगर गोष्ठियों तक ही जाना पसंद किया। चाहता तो सब कुछ वापस पा सकता था। लेकिन उसे यही बात याद रही – एक बार सम्मान खोने के बाद दोबारा सम्मान हासिल कर लेना हालातों से समझौता करने जैसा है।

वह नौकरी में ही इतना मशगूल हो चुका था की उसके पास समय नहीं था जो औरों की तरह दूसरों का मनोरंजन कर सकें, लेकिन अपनी डायरी में रोज एक कविता जरूर लिखता था, और डायरियां लिख- लिख कर अलमारी भर ली। बस उन कविताओं को किताब की शक्ल देना बाकी था।

युवा लेखक

मनीष कुमार पाटीदार (महेश्वर)

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