(राजनीतिक सफरनामा )
दीपमाला से कांक्रीट के आंगन सज चुके हैं और सीमेन्ट की मोटी-पतली दीवालों पर भी लाइटिंग जगमगा रही है । अब यही तो प्रदर्शित करती है कि दीपावली का त्यौहार आ चुका है । ऊंची-ऊची बिल्डिंगों पर रोशनी जगमग हो रही है, उनके परिवार के मुस्कुराते हुए चेहरों पर और पा लेने की आश झलक रही है । पटाखों के फूटने का क्रम प्रारंभ हो चुका है जो घंटों तक चलेगा अनवरत । दीपावली पर होती है लक्ष्मी मॉ की पूजन इस कामना के साथ ही तो की जाती है कि मॉ लक्ष्मी का वास रहे और तिजोरी की दौलत में गतिशीलता रहे । पर ऐसे बहुत सारे आंगन हैं जिनके कोने सूने हैं, उनके मकान अंधियारे की कालिमा में अपने वर्तमान और भविष्य की कालिमा का दर्द भर चित्र उकेर रहे हैं । अभावों के आंगन में दीपशिखा के जला लेने के भी कोई मायने नहीं हैं । पेट में दाना नहीं यह घोषित होते रहने के बाद भी की देश के 80 करोड़ लोगों को राशन दिया जा रहा है, तो माटी के दिए की तेल की प्यास कोई कैसे बुझा पायेगा । माटी को चाहिए भी नहीं कुछ जो टीमटाम हमने बना रखे हैं वे हमारी कृत्रिमता के सूचक ही हैं । एक तरफ महालक्ष्मी की कृपा से बरस रहा है धन और एक तरफ इतनी आय भी नहीं हो पा रही है कि वे अपने बच्चों के तन को नए कपड़ों से ढंक दें । उनके लिए दीवाली के क्या मायने हैं । ‘‘आई दिवारी पाहुनी, लाई दिया भर तेल’’ । पर नहीं लाई दीवाली तो पाहुनी बनकर आ गई पर मंहगे हो चुके तेल को खरीद पाने की गुंजाइश अब नहीं रही । कोराना काल के बाद बहुत कुछ परिवर्तित हुआ है । इस परिवर्तन में चेहरे की मुस्कान भी सम्मलित है । अब चेहरे बुझे हुए दिखाई देते हैं उत्साहहीन ।
तेल रहित दीपक पर प्रज्जवलित करने का प्रयास कर रहे हैं दीपशिखा को, जो दीपावली याने घोर अमवाश्या के गहन तिमिर को भर दे उजयार से । जब पहली बार धरा पर जगमग रोशनी बिखेरती दीपशिखा ने हरा होगा तिमिर तब वर्तमान के संक्रमणकाल की कल्पना भी नहीं की होगी किसी ने । दीप ज्योति तो फैलाती है उजियारा । अपनी मद्धिम-मद्धिम ज्योति से उतना प्रकाश तो दे ही देती जितने की आवश्यकता आम मानव मूल्यों को होती है । काली निशा को भी प्रकाश से जगमग कर देने का प्रतीक बना कर ही तो दीपावली पर घर आंगन के कोने कोने में माटी के दियों को जलाया जाता रहा है लिपे आंगन में । नन्हे से दीपक की यह रोशनी न केवल अंधियारे को हरती रही है वरन नई उर्जा का संचार भी करती रही है । इसी उर्जा के बल पर वर्ष के 365 दिन आम व्यक्ति उमंग और उत्साह से काट लेता रहा है । पर अब हम नई सदी में प्रवेश कर चुके हैं जिसमें आंगन के उत्सवों को स्थान कम होता जा रहा है । हमने तो आंगन को ही खत्म कर दिया है अब केवल कांक्रीट का मैदान होता है उस कांक्रीट के मैदान में सौधापन नहीं होता, उसमें माटी की खुशबू नहीं होती, उसमें पल्लवित सुमन की सुगंध नहीं होती उसमें उच्छवास नहीं होता, उसमें आत्मीय स्पंदन नहीं होता, उसमें संस्कारों की छाया नहीं होती । हमारे तो घरों में सफाई भी नहीं होती…….महंगे डिस्टेम्पर से पुती दीवारों का गुरूर अवश्य होता है । हमारी पंरपराओं से हम ही मुख मोड़ते जा रहे हैं । सच में संक्रमणकाल के दौर से गुजर रहे हैं हम । महंगाई इतनी कि कभी प्याज के काटने से आंसू निकलते थे अब केवल उसके दाम सुनकर आंसू बह रहे हैं । तेल महगा, दाल महंगी, नकली चावल तक महंगा, रसोई का सिलेंडर मंहगा, महंगाई का दौर है पर फिर भी मोबाईल में नेट पेक घर के कनस्तर में आटे से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है । एक अकेला व्यक्ति केवल मोबाईल वाटसप के भरोसे समय काट लेता है फिर उसे पड़ोसी की जरूरत क्यों होगी । पड़ोसी भी एकाकी हो गया है और हम भी हमारे बच्चे भी और पत्नी भी मोबाइल में चक्कर लगा लेती है सारी दुनिया का । ऑनलाईन व्यापार ने व्यापारियों के चेहरे को उदास कर रखा है । उनकी दुकान में सामान रखा धूल खाता रहता है और उसके मित्र के घर पर ही आनलाइन सामान आ जाता है । व्यापार कुछ विशेष कंपनियों तक सिमट कर रह गया है और बिग बाजार बड़े बड़े माल नई किराना दुकाने बन गई हैं । बगैर कटे या कम कटे बिल बुक से जीएसटी का रिर्टन भर कर वह गहरी सांस ले रहा है, उसे साल में एक बार आयकर रिटर्न भी भरना है भले ही आय नहीं हुई हो । उदास व्यापारी दीपावली कैसे मनायेगा । कोरोना ने छला है और लाकडाउन के चलते शटरों में लटके तालों ने निचोड़ दी है आर्थिक व्यवस्था । किसान आंदोलन की राह पर है उन्हें भय सता रहा है कृशि सुधार के नए कानूनों से । उनकी फसल का दाम अभी अभी व्यापारी ही तय कर रहे हैं सरकार अनाज खरीदकर महिनों बाद भुगतान कर रही है बाकी काम प्रकृति कर रही है । प्रकृति कभी बेहिसाब वर्षा कर तो कभी ओला बरसाकर उसकी मेहनत को बरबाद कर रही है । किसान के माथे की लकीरें में उभरी चिन्ता कभी नहीं होती 21 वीं सदी में भी कम नहीं हो रही है उसकी आधी फटी धोती आज भी उसकी रामकहानी बयां कर रही है । उसके लिये दीपवली के आने का कोई मतलब नहीं है । आमव्यक्ति की तिजोरी खाली है । वह खाली तिजोरी के ऊपर ही स्वास्तिक का पवित्र चिन्ह बनाकर पूज रहा है इस उम्मीद के साथ कि कभी चिल्लर से ही सही उसकी तिजोरी भर ही जायेगी । उसकी सीमित होती आय और बढ़ती महंगाई के बीच नित प्रति धर्म युद्ध चल रहा है उसके कानों में कृष्ण की गीता के उपदेश गूंज रहे हैं ‘‘तू क्या लेकर आया था और क्या लेकर जायेगा’’ । सचमुच वह तो कुछ भी नहीं लेकर आया था पिताजी की विरासत को सम्हालने का प्रयास किया पर वह भी दिन प्रति दिन कम होती चली गई अब तो वाकई वह खाली हाथ हो गया है । वह अभावों के आंगन में भावों की दीपशिखा कैसे प्रज्जवलित कर पायेगा । नवरात्रि में वह गहन आस्था और विश्वास के साथ देवी को पूजता है और शरद पूर्णिमा के मुस्कुराते चांद के नीचे अपनी कटोरी भर खीर रखकर अमर हो जाने का नहीं केवल तिजोरी में कुछ आ जाने की अभिव्यक्ति परोसता है ताकि कार्तिक की गहरी दीपावली की अमावश्या की रात में वह दो बूंद तेल की डालकर एक दीप प्रज्जविलत कर देहरी को प्रकाशवान बना सके । वैसे आम आदमी जानता है कि अब केवल अमवाश्या पर ही काली घनी रात अपना डरावाना रूप नहीं दिखाती ऐसा रूप तो आम आदमी साल भर देखता रहता है । छोटी छोटी बच्चियों के साथ हो रहे क्रूर अत्याचार, मॉबलीचिंग के नाम पर भीड़ का राक्षसी अट्टहास, आतंकवाद के नाम पर खून की होली ये सब कुछ दिन के उजियाले में भी तो हो रहा है । सारे लाग भयभीत हैं, दिन के डरावने दृश्य रात की नींद में बैचेनी भर रहे हैं । समाज पतित हो चुका है, नैतिकता गुम हो चुकी है, दया, करूणा के भाव स्वंय ही डिक्शनरी से विदा हो चुके हैं । ओह……..सत्य पर असत्य की विजय का प्रहसन करते करते हम राम नहीं रावण की भूमिका में कब आ गये हमें पता ही नहीं चला । रावण नहीं मर सकता कभी जब रावण मरेगा ही नहीं तो दीपोत्सव क्यों ? राजनीति के भरोसे विकास की उम्मीद बेमानी हो चुकी है । विकास का मतलब अपनी ही छत्रछाया को फलीभूत करना रह गया है । ढिंढोरा पीटने से विकास पैदा नहीं हो सकता । सतही काम करने को विकास की परिभाषा में परिभाषित नहीं किया जा सकता । राजनीति मानव मूल्यों के सृजन के उद्देश्य से भटक चुकी है वह केवल सत्ता की जगमगता कुर्सी को हासिल कर लेने के लक्ष्य तक अर्जुनीय एकाक्रता में बदल चुकी है । बहलाना, फुसलाना, आश्वासनों की लालीपाप और निरंकुशता के प्रतीलक के रूप में उभर चुकी है । भूखे पेट आम जनता भी दो भागों में बंट चुकी है एक लालीपाप के साथ है और दूसरी मृगमीचिका के प्रहसन करने वालों के साथ । दोनों जनता के लिए, जनता के साथ कभी सामने खड़े होते दिख्चाई नहीं देते । दिखता है केवल भ्रम का मायाजाल । राजनीतिज्ञों के इस बेहतरीन जादुई कलां के कारण ही तो अब सारे जादूगर गायब हो चुके हैं, बहरूपियों ने दूसरा व्यवसाय अपना लिया है । स्वर्णमृग के चक्कर में आम व्यक्ति मारा मारा फिर रहा है । जंगल में कम होते पेड़ों ने उष्णता बढ़ा दी है इस उष्णता को आम आदमी ने ग्रहण कर लिया है । चन्द्रमा की यात्रा पर निकला यान भटक जाता है और मिसाइल का परीक्षण सफल हो जाता है । पर दीपावली है न दीपों के प्रकाश के बिना यह कैसे पूरी होगी, पटाख्,ां की गर्जना के बिना कैसे जगजाहिर होगी । हम ने अभावों में मुस्कुराना सीख लिया है हमने तेल के बगैर बाती को जलाना सीख लिया है, तो आईये हम नये उत्साह के साथ स्वागत करें दीपावली का बगैर किसी आकांक्षा के । हम एक दूसरे को को शुभकामनायें अर्पित करें दीपोत्सव की । सभी को बहुत बहुत बधाई हमारी परंपरा के अनोखे दीपोत्सव की ।