प्रकृति की निराली छटा में गुँजित हैं वेद पुराण
निस्वार्थता रस्म जिसकी है परस्पर प्रेम पहचान
कितना खूबसूरत है न ईश्वर का बख़्शा हुआ ये मानव जीवन, जिसकी नस नस में वात्सल्य पोषित होता है, किंतु इस अमृत का विष में रूपाँतरण क्यूँ, कब और कैसे हो गया ये गँभीर चिंतन का विषय है।धरती, आकाश, अग्नि, वायु और जल, इन पाँच तत्वों के मिश्रण से बनी मानव देह, इन्हीं पाँच तत्वों की परिधि पर परिक्रमा करती हुई अपनी उम्र को पूरा करती है।लेकिन जिन लोगों का दृष्टिकोण प्रकृति के गुणों से सामँजस्य बिठा पाता है, वास्तव में वही लोग ज़िंदगी को जीते हैं, बाकी सब तो निर्रथक जीवन शेष करके सँसार से कूच कर जाते हैं।दरअसल ये प्रकृति का नियम है कि मानव जो कुछ भी प्रकृति से उपहार स्वरूप पाता है, जब तक वो इस दौलत को सृष्टि को वापस ना लौटाए तब तक वो प्रकृति के ऋण से मुक्त नहीं हो सकता।
परस्पर प्रेम व सहयोग के साथ खुद भी जिएँ और दूसरों के उत्थान में भी मदद करें, यही तो मानव जीवन का उद्देश्य है।लेकिन निजी स्वार्थ के कारण प्राकृतिक सँपदा के दुरूपयोग से नाराज़ प्रकृति ने आज वीभत्स रूप धारण कर लिया है जिसके परिणामस्वरूप आज सँपूर्ण मानव जाति को प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है।
प्रतिवर्ष सोलह सितँबर को विश्व ओजोन दिवस दुनिया भर में मनाया जाता है।पर्यावरण के सँरक्षण के लिए हमें सबसे पहले पृथ्वी पर हो रहे प्रदूषण को रोकना होगा।जिन में
घर पर उपयोग होने वाले फ्रिज और AC से निकलती ज़हरीली गैस और कार्बन मोनोऑक्साइड जो ऑटो मोबाइल से उत्सर्जित होती है, कारखानों से निकलने वाला धुंआ, डीजल इंजन, पेट्रोल आदि से निकलने वाले अपशिष्ट, ज्वालामुखीय विस्फोट और पराली की आग आदि, शामिल है, जिनकी अधिकता से पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है, और ध्रुवीय बर्फ़ पिघलने के कारण द्वीपों में बाढ़ की स्थिति बन रही है।
प्रकृति के इस असँतुलन का प्रकोप समस्त मानव जाति को न सहना पड़े इसके लिए जागरूक होना बेहद ज़रूरी है।
जागरूकता सर्वप्रथम समस्त मानव जाति के अँतरतम के प्रति होनी चाहिए तभी तो मानव मन भी स्वस्थ रहेगा और मानव तन भी। एक स्वस्थ व्यक्ति ही स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है।अपने आसपास का वातावरण और पर्यावरण दोनों की स्वच्छता का दायित्व समस्त मानव जाति पर है।अब बात करते हैं उस जैविक भाव की जो समूची मानव जाति को कल्याण मार्ग की ओर ले जा सकती है, वो है निस्वार्थता की भावना।
ये तो सच है कि तमाम सजीव जँतु व तँतु बढ़ते हैं। रूकती है तो केवल उनके बढ़ने की क्षमता। कारण या तो कोई बीमारी या पोषक तत्वों की कमी,मानव जाति में निस्वार्थता के बढने की क्षमता में कमी,मानसिक रूग्णता या स्वार्थ की बीमारी के अलावा और तो कुछ हो ही नहीं सकती। तो क्यूँ न एक दूसरे से अपेक्षा करने की बजाए समूची मानव जाति एक दूसरे के प्रति निस्वार्थ प्रेम का भाव रखते हुए अँतरमन व पर्यावरण की स्वच्छता का दायित्व अपने ही कँधों पर उठा कर एक स्वस्थ समाज के निर्माण का प्रण ले।
शिक्षा के नाम पर केवल काग़ज़ी डिग्रियाँ न परोसी जाएँ बल्कि प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षण सँस्थानों का ये कर्तव्य बनता है कि प्रत्येक विद्यार्थी को राष्ट्रीय स्तर पर सँस्कृति के क़ायदे पढ़ाए जाएँ ताकि देश का हर नागरिक सभ्यता के उत्थान में सहयोगी हो।
तन और मन के सँतुलन से ही तो दूर होंगे सब रोग
प्रकृति के साथ सामँजस्य बैठाना ही सर्वोत्तम योग