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अब नहीं रही

घुमंतु परिवार में भीख के रोजगार में,

वह चलने से लाचार टांगें  अब नहीं रहीं।

रीते घड़े की पहेलियां दाना खोजती उंगलियां,

 वह पेट की पीड़ाएं अब नहीं रहीं।

दिन में लकड़ी बीनना रात के लिए सहेजना,

 वो आग तापती रातें  अब नहीं रहीं।

कलुआ कई दिनों से आया नहीं शहर से,

 वो बेटे को पुकारती कराहें अब नहीं रहीं।

बाबा की पथ ताकती अतीत में झांकती,

वो पथरीली आंखें अब नहीं रही।

कलुआ की आस थी तुषार  की रात थी,

 वो गुदड़ी में तन को ढांपती कोशिशें  अब नहीं रहीं।

निराशा से भरी थी सागर से गहरी थी,

 वह कच्चे धागे सी लंबी सांसें है अब नहीं रहीं।

— हेमलता राजेंद्र शर्मा मनस्विनी,साईंखेड़ा नरसिंहपुर मध्यप्रदेश

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