लघु कहानी : कुदरत का न्याय
Corona वायरस द्वारा मानवता के खिलाफ मचाए जा रहे तांडव ने मेरे हृदय को झकझोर कर रख दिया और मेरे अचेतन मस्तिष्क में दबी हुई एक वास्तविक एवं मार्मिक घटना को मेरे चेतन मस्तिष्क पर प्रक्षेपित कर दिया। विश्वविदयालय में एम. ए. द्वितीय सेमेस्टर की परीक्षाएं समाप्त होने पर 7 दिनों की छुट्टियां बिताने, मै और मेरे अधिकतर सहपाठी अपने – अपने गांव गए थे। शाम को लगभग 5 बजे मै अपने घर पहुंचा। मेरी मम्मी जी के हृदय की खुशी उनके चेहरे पर प्रतिबिंबित हो रही थी। माता जी ने मेरा मनपसंद खाना बनाया जोकि अत्यधिक स्वादिष्ट और वात्सल्य से भरपूर था। खाना खाकर, मम्मी – पापा और भाई – ब हनों से बातचीत करके में सो गया।
सुबह 3 बजे उठकर रीडिंग की आदत थी लेकिन उस दिन तो मै सुबह 6 बजे तक जमकर सोया। प्राथमिक दिनचर्या से निवृत्त होकर, मै अपने घेर ( वह स्थान जहां पशुओं को रखा जाता है) में जा रहा था, अचानक रास्ते में धरमपाल के घेर के पास, लोगो की भीड़ को देखकर मै स्तब्ध रह गया। साधारणतया इतनी भीड़ हमारे मोहल्ले में नहीं होती थी। अधिकतर महिलाएं घूंघट किए हुए थी जोकि वहां की प्रथा थी।
मैंने एक बुज़ुर्ग आदमी जो खुद भी मौत के दरवाजे पर खड़ा था, से पूछा, ” बाबा जी! क्या हुआ यहां?
जवाब मिला, ” कुदरत का न्याय”
‘ कुदरत का न्याय ‘ इससे पहले मै कुछ ओर पूछता या सामझता, मने देखा कि कुछ लोग धरमपाल, जो लहूलुहान अपने गंडासे ( चारा काटने की बिजली की मशीन) के पास अचेत अवस्था में पड़ा था, को एक प्राइवेट टैक्सी में लाध रहे थे। मेरे मन में प्रश्न उठा कि प्राइवेट टैक्सी में क्यों, एम्बुलेंस में क्यों नहीं? जिसका जवाब मेरी अंतरात्मा ने ही दे दिया कि गाव में एम्बुलेंस की व्यवस्था इतनी अच्छी नहीं होती जितनी की शहर में, और अगर होती भी है तो वो गरीबों की पहुंच से बाहर।
मात्र 5 मिनट पहले ही धरमपाल अपने गंडासे पर भैंसो के लिए चारा काट रहा था, अचानक उसके हाथ मशीन में फंस गए जैसे कि किसी ने उसके हाथों को मशीन में अंदर की तरफ खींचा हो, ऐसा धरमपाल ने बेहोश होने से पहले खुद लोगो को बताया था। उसके दोनों हाथ कोहनी तक कट गए थे छोटे छोटे टुकड़ों में चारे की तरह। उसने बहुत शोर मचाया होगा लेकिन कोई भी उसकी चीख पुकार नहीं सुन पाया शायद कुदरत ने सभी को कुछ समय के लिए बहरा बना दिया था और बिजली चले जाने तक उसके हाथ कट ते रहे। उसके हाथों की कटी हुईं उंगलियां अभी भी तड़प रही थी, फुदक रही थी मानो कि वे उसके कुकर्मों एवं पापो की गवाही दे रही हो।
कौन से पाप?
कैसे कुकर्म?
ये प्रश्न मेरे मन पटल पर अमिट स्याही से लिख गए थे। मै बार बार यही सोच रहा था कि आखिर ऐसे कौन से पाप किए थे धरमपाल ने जिनकी उसको इतनी बड़ी सजा मिली। वहां पर खड़े बहुत से लोगो के चेहरे पर बनावटी दुख और हृदय में न्याय की भावना भरी थी जो ना चाहते हुए भी उनकी बातों से झलक रही थी – भगवान का न्याय, कुदरत का न्याय, बस यही दो वाक्य सुनने को मिल रहे थे। मै बहुत बेचैन हो उठा था बार बार ये शब्द सुनकर। मैंने इन शब्दों के पीछे छिपी सच्चाई को जानने की कोशिश की लेकिन कोई कुछ बताने को तैयार नहीं था।
मै अपने मन मे झकझोर देने वाले प्रश्नों को लिए अपने घर चला गया। नाश्ता करने का बिल्कुल भी मन नहीं था। मेरी माता जी ने मेरा मनपसंद बेसन का हलवा बनाया था लेकिन मेरा मन बहुत व्यथित था। माता जी के बार बार पूछने पर मैंने सुबह की सारी घटना का वर्णन किया जिसको सुनकर उनका जवाब और भी परेशान करने वाला था। उन्होंने कहा, ‘ भगवान के घर देर है अंधेर नहीं, आज हुआ है न्याय,3 साल बाद।’
मैंने उत्सुकता के साथ पूछा, ‘ माता जी, क्या हुआ था 3 साल पहले? ‘
‘ रहने दे बेटा, क्या करेगा जानकर? माता जी ने करुणा से भरी आवाज में कहा।
नहीं नहीं, मम्मी ! मुझे जानना है सबकुछ, मै आपके हाथ जोड़ता हूं , मुझे बताओ, आखिर ऐसा क्या हुआ था? मैंने प्रार्थना करते हुए जिद की।
ठीक है बेटा तो कलेजे पर पत्थर रख लो, बहुत ही अमानवीय घटना हुई थी 3 वर्ष पहले।
दीवाली के आस पास की बात है। दूसरे कुम्हारों की तरह धरमपाल भी बेचने के लिए मिट्टी के दीए, करवे, सराई आदि बरतन बनता था अपने घेर में। वो बहुत मेहनत करता था दिन – रात। उसके घेर में कुछ ही दिनों पहले एक कुत्तिया ने 4 पिल्लों को जन्म दिया था, अब वे चलने फिरने लगे थे। धरमपाल के बच्चें और उसकी पत्नी उनको बहुत प्यार करते थे, दूध पिलाते थे, रोटी और खिचड़ी आदि खिलाते थे। दोनों के बच्चे बहुत खुश थे। अगर कोई दुःखी था तो वो था धरमपाल। पिल्ले बार बार उसके बनाए हुए कच्चे बर्तनों को तोड़- फोड़ देते थे, कभी उनके ऊपर पोटी कर देते थे जिसे देखकर धरमपाल गुस्से से आग बबूला हो जाता था । वह उन पिल्लों को वहां से दूर फैंक आया लेकिन अगले ही दिन वे वापस आ गए। उसने अपनी पत्नी को चेतावनी भरे शब्दों में उन पिल्लों से छुटकारा पाने की बात कही लेकिन उसकी पत्नी ने जवाब दिया, ” आप कुछ ज्यादा ही परेशान हो रहे हो इन बेचारे पिल्लों से। ये तो बेचारे न बोल सकते ना कुछ डिमांड कर सकते। जो भी हम दे देते हैं, उसी को खाकर संतुष्ट रहते हैं। दो चार बर्तन तोड़ भी देते हैं तो क्या हुआ? उसी मिट्टी से दोबारा बर्तन बन जाते हैं। हमारे दोनों बच्चें कितने खुश होते इनके साथ खेलकर, अब तो ये हमारे परिवार का अभिन्न अंग बन गए हैं। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इनको यही रहने दो।”
अपनी पत्नी की ये बात सुनकर, धरमपाल कुछ बोल ना पाया लेकिन अंदर ही अंदर उसके मन में गुस्से का ज्वालामुखी सुलग रहा था जो किसी भी समय फट सकता था । अगले ही दिन जब वह अपने घेर में गया तो उसने देखा कि पिल्लों ने आज फिर कुछ बर्तन फोड़ रखे थे। यह देखकर उसका गुस्सा सातवे आसमान पर चढ़ गया था। उसके उपर शैतान सवार हो गया और उसने पिल्लों से हमेशा के लिए पीछा छुड़ाने का मन बना लिया। उसने उसी रात आवा चढ़ाने की योजना बनाई। बर्तन पकाने के लिए कम से कम दो लोगो की जरूरत होती है और साधारणतया धरमपाल और उसकी पत्नी दोनों ही मिलकर आवा चढ़ाते थे, लेकिन उस रात धरमपाल ने अपनी पत्नी को घर पर ही बच्चों के साथ रहने को कहा क्योंकि उसकी बेटी की तबियत ठीक नहीं थी। ” आज तुम बच्चो का ध्यान रखना, मै छोटे भाई की सहायता से बर्तन पका दूंगा ।”
उस बेचारी को नहीं पता था कि क्या होने वाला है। वो तो अपनी बेटी को दवाई देकर सो गई थी।
धरमपाल ने बर्तन पकाने की भट्टी (आवा) जलाया और जब आग अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई तब उन पिल्लों को एक एक कर जिंदा ही आग में फैक दिया। वो चिल्लाते रहे, चीखते रहे। उनकी मां भी उससे दया की भीख मांगती रही, रोती रही लेकिन उस निर्दई का हृदय बिल्कुल भी नहीं पसीजा।उसने उन पिल्लों को आग़ से बाहर नहीं आने दिया । वो कुत्तिया उनको बचाने के लिए आग में कूद गई लेकिन उनको न बचा पाई। वो बेचारी भी बुरी तरह झुलस गई थी।
सुबह जब उसकी पत्नी घेर में गई तो उस कुत्तिया ने धरमपाल के कुकर्मों की जानकारी उसको दी और वो भी मर गई। जब भट्टी से बर्तनों को निकाल तो राख में उन पिल्लो की हड्डियां मिली जो उस धरमपाल के पापो का सबूत था।
माता जी ये बताते बताते बहुत ही भावुक हो गई थी और मेरी आंखो से भी आंसू बहने लगे थे। मेरे मन से भी वही बात निकली जो सब लोग कह रहे थे – कुदरत का न्याय।
Dr. K P Singh
Assistant Professor