डॉ ज्योत्स्ना शर्मा
संस्कृति मंत्रालय
भारत सरकार
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शिक्षा समाज और मानव विकास की आधारशिला है। जब मानव जाति के लिए शिक्षा शब्द का प्रयोग किया जाता है तब उसका अर्थ विवेक से लिया गया यानी मनुष्य की वह स्थिति जिसके अंतर्गत उसमें अंतर्निहित शक्तियों का निरंतर विकास होता है तथा उसके ज्ञान और कौशल में वृद्धि होती है। मनुष्य के व्यवहार में सतत परिवर्तन होता है जिससे वह सभ्य और सुसंस्कृत प्राणी बनने का दर्जा प्राप्त करता है। शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की “शिक्ष” धातु में “अ” प्रत्यय लगने से बना है। “शिक्ष” का शाब्दिक अर्थ है सीखना और सिखाना । इसलिए शिक्षा का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया। व्यापक दृष्टि से यदि हम विवेचन करें तो शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है।
वैदिक काल से ही भारत में शिक्षा का गौरवशाली इतिहास रहा है। ऋग्वेद, उपनिषद, पुराण जैसे शस्त्रों तथा प्रसिद्ध भारतीय न्याय वेत्ता यागवलक्य, प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि, प्रसिद्ध राजनैतिक चिंतक कौटिल्य, प्रसिद्ध वेदांती शंकराचार्य, प्रसिद्ध दार्शनिक कणाद, प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री राधाकृष्णन, विवेकानंद, अरविंदो घोष तथा टैगोर ने शिक्षा की भारतीय अवधारणा को उच्च आयाम दिया तथा अलग-अलग कालखंड में इन सभी शिक्षाविदों ने शिक्षा के दर्शन को परिभाषित किया। यदि हम भारत की शिक्षा व्यवस्था का विवेचन करें तो ऐतिहासिक दृष्टि से इसकी जड़े प्राचीन कालीन वैदिक शिक्षा के अंतर्गत दी जाने वाली गुरुकुल व्यवस्था से लगाया जा सकता है।
वैदिक काल में शिक्षा
भारतीय शिक्षा प्रणाली में वेदों का स्थान नितांत गौरवपूर्ण रहा है। श्रुति की दृढ़ आधारशिला के ऊपर भारतीय धर्म तथा सभ्यता का भव्य विशाल प्रासाद प्रतिष्ठित है। “हिंदुओं के आचार-विचार, रहन-सहन तथा धर्म-कर्म को भली-भांति समझने के लिए वेदों का ज्ञान आवश्यक है। वेद की भारतीय धर्म में इतनी प्रतिष्ठा है कि उनके प्रबल तर्क के सहारे विपक्षियों की युक्तियों को छिन्न-भिन्न कर देने वाले तर्क कुशल आचार्यों के सामने भी यदि कोई वेद विरोध दृष्टिगोचर होता है तो उनके मस्तक स्वभावतः नत हो जाता है।“1 प्राचीन काल में वेद जीवन दर्शन और शिक्षा व्यवस्था के मूल तथा वास्तविक स्रोत थे। शिक्षा दीक्षा का आधार वेद ही थे। ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा यजुर्वेद में भारतीय समाज की संस्कृति, सभ्यता, जीवन तथा दर्शन के ज्ञान का स्रोत था। वेद स्वयं जीवन दर्शन थे ।
वैदिक शिक्षा के लक्ष्य तथा उद्देश्य
वैदिक काल में शिक्षा का अंतिम लक्ष्य व्यक्ति को सत्य का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम बनाना तथा मोक्ष की प्राप्ति के विषय में अवगत करना था।2 वैदिक शिक्षा का एकमात्र उद्देशय मनुष्य का सर्वांगीण विकास करना था । इसके अन्य महत्वपूर्ण लक्ष्य थे।
- चरित्र तथा व्यक्तित्व का विकास: महाभारत से उद्धृत एक सूक्ति में कहा गया है:-
वृतं यत्नेन वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो विततं: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:।।‘’
अर्थात धन के नष्ट हो जाने पर भी उसे पुनः संग्रहित किया जा सकता है पर एक बार चरित्र का विनाश हो जाए तो उसे पुनः प्राप्त करना असंभव है।
- ब्रह्मचर्य का पालन: इसी प्रकार छात्र जीवन में ब्रह्मचर्य की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हुए अथर्ववेद (11/5/19) में कहा गया है:-
“ब्रह्मचर्य तपसा देवा मृत्यमुपाहनत्’’
अर्थात ब्रह्मचर्य से बढ़कर कोई तप नहीं है। गुरुकुल में छात्रों को वस्तुत: उन सभी व्रतों और नियमों का पालन करना होता था जो उनके जीवन को अनुशासित बनाए।
- संस्कृति का संरक्षण:
भारत की विश्व गुरु के रूप में पहचान अंकित है, उसका कारण है कि भारत जैसे बहु भाषा और संस्कृति वाले देश में ज्ञान के स्त्रोत उपलब्ध थे। गुरु शिष्य परंपरा अपनी शुद्धतम अवस्था में शिक्षा के स्वरूप को आलोकित करती थी। गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान होने वाला ज्ञान श्रुतियों के माध्यम से निरंतर आगे बढ़ता रहा। इसी कारण हजारों वर्षों के बाद भी भारत की आध्यात्मिक चेतना के अंतर्गत निर्धारित शिक्षा विश्व पटल पर अपनी गहरी छाप छोड़ती है।
शिक्षण विधियां
वैदिक काल में पुनरावृति अथवा आवृत्ति पर जोर दिया जाता था। उस कल में शिक्षकों द्वारा मुख्यतः तीन शिक्षण विधियों का उपयोग किया जाता था।
- श्रवण (सुनना): छात्र शिक्षक द्वारा कही जा रही विषय वस्तु को ध्यानपूर्वक सुनते थे तथा उन्हें याद करते थे।
- मनन (विचार विमर्श): यह शिक्षण का एक उन्नत तरीका था जिसके माध्यम से छात्र शिक्षक द्वारा पढ़ाई गई विषय वस्तु पर विचार विमर्श करते थे।
- निदिध्यासन (ध्यान): विजातीय शरीर आदि के विचारों से रहित तथा अद्वितीय वस्तु ब्रह्मा के विषय में सजातीय विचारधारा का प्रवाह निदिध्यासन कहा जाता है।3 इस विधि के माध्यम से सत्य के बोध को प्राप्त किया जाता है।
गुरु शिष्य संबंध
वैदिक काल में शिक्षा की व्यवस्था गुरुकुल में होती थी। गुरुकुल साधारणतः किसी सुंदर प्राकृतिक स्थान पर बने होते थे। छात्रों को गुरु की सेवा के साथ-साथ गुरुकुल के वांछित कार्य करने होते थे जिससे उनमें अहंकार के स्थान पर विनम्रता और उदारता के भाव पोषित हों। साथ ही अपने दायित्वों के प्रति भी सजग रहे। बहुत ध्यानपूर्वक गुरु के निर्देशों को सुनते थे और उनका पालन करते थे। छात्रों को अनुशासित, सरल, साधारण, सुव्यवस्थित जीवनचर्या हेतु तैयार किया जाता था जिससे वह राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सकें।
पाठ्यचर्या
वैदिक कालीन शिक्षा पद्धति छात्रों के सर्वांगीण विकास पर बल देती थी। छात्र वेदों को कंठस्थ करते थे और उन्हें संस्कृत भाषा तथा छ: वेदांग, कल्पों, व्याकरण, ज्योतिष, छंद, निरुक्त तथा शिक्षा* शास्त्र का अध्ययन कराया जाता था। शारीरिक शिक्षा भी अत्यंत महत्वपूर्ण थी तथा तकनीकी विषयों जैसे कि आयुर्वेद, औषधि विज्ञान, शल्य चिकित्सा, खगोल शास्त्र, आचार-नीति, दर्शन, ज्योतिष, शस्त्र विद्या आदि विषय भी पाठ्यचर्या के महत्वपूर्ण अंग थे।
नारी शिक्षा
वैदिक काल में नारी शिक्षा पर बल दिया जाता था। स्त्रियां वेदों के पठन-पाठन के साथ कई विशिष्ट विद्याओं में भी ज्ञान अर्जन करती थीं। स्त्रियों के लिए भी गुरुकुल में निवास की व्यवस्था होती थी जो गुरुकुल माता द्वारा संचालित किए जाते थे। गुरुकुल में शिक्षा व्यवस्था के साथ ही बालिकाओं की उनके घर में ही शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। बालिकाओं को साहित्य, कला, संगीत आदि की शिक्षा भी प्रदान की जाती थी।
नि:संदेह भारत की वैदिक शिक्षा पद्धति मनुष्य को महामानव बनाने की सामर्थता रखती थी। वैदिक काल में शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के “स्व” से परिचित करवाना था तथा आत्मबोध के स्तर तक मनुष्य की कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों को तैयार करना था। अतिशयोक्ति न होगी कि इस प्रकार की जीवनचर्या छात्रों को जीवन के लिए तैयार करने में मददगार थी। वैदिक शिक्षा आध्यात्मिकता के साथ-साथ जीवन की भी शिक्षा प्रदान करती है जिससे भविष्य में यही छात्र स्वस्थ समाज की नींव रख सकें और अपने विवेक बुद्धि ज्ञान से राष्ट्र को संबल बनाने में सक्षम बने।
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संदर्भ:
- ई-ज्ञानकोश
- www.mpboardonline.com/answer/xamstudy/b-ed-bhaarat-mein-shiksha-star-samasya-evam-mudde
- https://www.shivajicollege.ac.in/sPanel/uploads/econtent/pdf.
- शिक्षा* को “स्वर विज्ञान” के रूप में पढ़ें।