पंकज सीबी मिश्रा, राजनीतिक विश्लेषक एवं पत्रकार जौनपुर यूपी
हम वही देखते है जो हमें दिखाया जाता है जबकि वास्तविक चित्र अब भी धुंधला है और धूर्त नेता इस चित्र के आगे कुंडली मार बैठे है। आपको समाज का सबसे निकृष्ट व्यक्ति साबित करने में इन्हे केवल दो मिनट लगता है जबकि इनका वीआईपी कल्चर हमेशा इनके तबके को ऊँचा रखता है। चरित्रहीन नेताओं के असली चित्र को पहचानने के लिए आपको अपने चारों तरफ के धुंध को साफ करना होगा। कई मुद्दों पर बेबाकी दिखाने से बेहतर है एक सामान्य मुद्दे भ्रस्टाचार को बेनकाब किया जाए। घूस पर भारतवासियों का जन्म से पूर्व का सिद्ध अधिकार है।मुफ्त का आरक्षण,मुफ्त का अनाज, मुफ्त की बेहतर सुविधाएं, मुफ्त का विकास और फिर इन सबके बाद भी घूस पर काम, ऑफिस से तहसील तक दो तो दो पर घूस पर उँगली उठाना ठीक नही। अपने पड़ोसी से कभी पूछा की वो मालामाल कैसे हुआ ! उन अपनो से पूछा जो घूस से मालामाल हुए। पिछड़ा क्या पिछडो से बिल्कुल नही लेता है घूस ! जातिय प्रमाणपत्र अगड़ों की जरूरत नही पर ब्लॉक में बैठा एक पिछड़ी जाति का बाबू खुलेआम अपनो से ही नजराना लेता है फिर प्रमाण पत्र देता है। सरकारी नौकरी वाले वर से कन्या के पिता पूछते है कि ऊपरी कितना ? दुनिया मे अब तक का सबसे कठिन बीमारी जिनका पूर्ण इलाज संभव नही वो है घूस । संविधान के चारो खंभे घूस की कई रंग से बदरंग दिखते है । घूस के विरोध में वही बोल सकता है जिसने घूस का मजा ना लिया हो और ना कभी दिया हो। क्या इस देश में राजनीति ही सबकुछ है ? इस बात को लेकर मन में कुई तरह के सवाल उठ रहे हैं। क्या कोई खिलाड़ी सिर्फ इसलिए खेलता है कि आगे चलकर उसे नेता, विधायक या सांसद बनना है ? क्या कोई कलाकार या अभिनेता सिर्फ इसलिए बनता है कि आगे चलकर उसे नेता, विधायक या सांसद बनना है? क्या कोई गायक सिर्फ इसलिए बनता है कि आगे चलकर उसे नेता, विधायक या सांसद बनना है? क्या कोई पत्रकारिता सिर्फ इसलिए करता है कि आगे चलकर उसे नेता, विधायक या सांसद बनना है? क्या कोई उद्योग इसलिए लगाता है कि आगे चलकर उसे नेता, विधायक या सांसद बनना है?
आज राजनैतिक दल वोट बटोरने और अपनी सरकार बनाने की उम्मीद में इन विधाओं के लोगों को राजनीति का सब्जबाग दिखाकर और अकूत धन और रुतबे का प्रलोभन देकर अपनी तरफ खींच लाते हैं। क्या सही है?
क्या इससे खेल, कला, अभिनय, उद्योग-व्यापार और पत्रकारिता का नुकसान नहीं हो रहा? क्या नेता, विधायक और सांसद बनने की उनकी यह इच्छा या भावना उनके खेल, कला, अभिनय और पत्रकारिता के कर्तव्यों को प्रभावित नहीं करती होंगी? क्या अपनी ऐसी इच्छाओं या भावनाओं की वजह से वे अपनी उन महत्वपूर्ण और पवित्र विधाओं के प्रति पूरी ईमानदारी बरत पाते होंगे और उन कार्यों को अपना संपूर्ण समर्पण दे पाते होंगे ?