शुचि शारदी शान्त अमा में दीप जलता है अकेला।
अनुराग- प्रकाश फैला है दिशा में
छितरा रही नभ में गंगा- कली
कमलासिनी- कमले! कल केशनी!
तारकों से होड़ लेने है चली
एक दीया रख दो ड्योढ़ी, दूसरा कुएँ पर, हो उजेला।
साधना का दीप है यह
श्वास में उन्माद हो ना
कर्म के वरदान से नित
हो सुमंगल घर का कोना
तिमिर टिकता है कहां जब लगा हो दीप मेला।
घूर पर दीया जले जब
होती घर में अति बरक्कत
और तुलसी- चौरा पर भी
धूप – दीप जलाएं निश्चित
काल के नीरव अमा में प्राण ने है दुक्ख झेला।
हो नया निर्माण शाश्वत
प्रगति का इतिहास रच दो
हर तरफ होवे उजाला
एक अक्षय दीप रख दो
मिट रही है निशा काली, किसने यह ज्योति उड़ेला।
भावने ! तू देख ऊपर
घनी राका जा रही है
हैं उमंगित सब दिशाएं
गीत जय का गा रही हैं
आ गई शरदागमन की यह सुहावन मधुर बेला।
डॉ.राहुल
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