जिंदगी उसी की जिसकी मौत पर जमाना अफसोस करे।
यूं तो हर शख्स आता है दुनिया में मरने के लिए।।
हां वैसे तो बहुत सारे लोग आते हैं और चले जाते हैं पर याद वहीं रहते हैं जिन्होंने इस देश को अपनी एक अलग छवि दी है, अपना एक अलग रूप दिया है, अपनी एक अलग पहचान बनाई है। अगर मैं बोलूं ऐसे 2 शब्द दया और निस्वार्थ भाव तो आपको सबसे पहले किसका नाम याद आता है…? अपने लिए तू यहां सभी जीते हैं पर जो दूसरों के लिए जिए वही सही शब्दों में असली हीरो है।ऐसा माना जाता है कि दुनिया में लगभग सारे लोग सिर्फ अपने लिए जीते हैं पर मानव इतिहास में ऐसे कई मनुष्यों के उदहारण हैं जिन्होंने अपना तमाम जीवन परोपकार और दूसरों की सेवा में अर्पित कर दिया। जी हां हम बात कर रहे हैं मदर टेरेसा की । मदर टेरेसा भी ऐसे ही महान लोगों में एक हैं जो सिर्फ दूसरों के लिए जीते हैं। मदर टेरेसा ऐसा नाम है जिसका स्मरण होते ही हमारा ह्रदय श्रध्धा से भर उठता है और चेहरे पर एक ख़ास आभा उमड़ जाती है। मदर टेरेसा एक ऐसी महान आत्मा थीं जिनका ह्रदय संसार के तमाम दीन-दरिद्र, बीमार, असहाय और गरीबों के लिए धड़कता था और इसी कारण उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन उनके सेवा और भलाई में लगा दिया, जो भारत की नहीं होने के बावजूद वह भारत में आई और भारत के लोगों से असीम प्रेम किया और यहां के लोगों के दिल में अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। भारत में ही इन्होंने अपने सारे महान कार्य की और यही की भूमि पर इन्होंने अपनी अंतिम सांसे भी ली।
उनका असली नाम ‘अगनेस गोंझा बोयाजिजू’ (Agnes Gonxha Bojaxhiu ) था। अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मदर टेरेसा एक ऐसी कली थीं जिन्होंने छोटी सी उम्र में ही गरीबों, दरिद्रों और असहायों की जिन्दगी में प्यार की खुशबू भर दी थी।
मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) में हुआ। उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे। मदर टेरेसा का वास्तविक नाम ‘अगनेस गोंझा बोयाजिजू’ था। अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है। जब वह मात्र आठ साल की थीं तभी उनके पिता परलोक सिधार गए, जिसके बाद उनके लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी उनकी माता द्राना बोयाजू के ऊपर आ गयी। वह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। उनके जन्म के समय उनकी बड़ी बहन की उम्र 7 साल और भाई की उम्र 2 साल थी, बाकी दो बच्चे बचपन में ही गुजर गए थे। वह एक सुन्दर, अध्ययनशील एवं परिश्रमी लड़की थीं। पढाई के साथ-साथ, गाना उन्हें बेहद पसंद था। वह और उनकी बहन पास के गिरजाघर में मुख्य गायिका थीं। ऐसा माना जाता है की जब वह मात्र बारह साल की थीं तभी उन्हें ये अनुभव हो गया था कि वो अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगायेंगी। जब मदर टेरेसा ग्रेजुएट हुई तब उन्होंने फैसला लिया कि उनको नन बनना हैं मतलब महिला साधु होती है या तो संत होती है, हालांकि जब वह 12 साल की थी तभी उनको यह एहसास हो गया कि उनका जीवन कोई साधारण जीवन नहीं है उनका जीवन दूसरों की भलाई करने के लिए ही बना है, इसलिए उन्होंने तभी से फैसला लिया था कि मुझे नन बनाना है लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी पूरी पढ़ाई पूरी करने के बाद ही नन बनना चाहा।
खूबसूरत लोग हमेशा अच्छे नहीं होते।
अच्छे लोग हमेशा खूबसूरत होते हैं।।
ऐसा माना था मदर टेरेसा का उनका कहना था कि वह हमेशा खुश रहें और दूसरों को खुश रखें। जब मदर टेरेसा ने यह फैसला लिया कि उनको नंद बनना है तो उन्होंने अपनी मां को यह फैसला सुनाया उनकी बाते सुनते ही उनकी मां के पैरों तले से मानों जमीन ही खिसक गई। वह बहुत दुखी हुई। उन्होंने अपनी बेटी को समझाया क्यों बेटी अगर तुम्हें गरीबों की और निस्वार्थ भाव से सेवा करनी है तुमको नन ही क्यों बनना है… तुम इसको ऐसे भी कर सकती हो क्योंकि वह जानती थी कि एक बार नन बन जाने के बाद वह अपनी बेटी से कभी नहीं मिल पाएंगी। वह कभी अपने घर भी नहीं आ पाएगी। इसलिए उनकी मां ने उनको बहुत समझाया लेकिन मदर टेरेसा ने उनकी एक बात नहीं सुनी उन्होंने कहा नहीं माँ मुझे जाने दो, मेरा जीवन कोई साधारण जीवन नहीं है मेरा जीवन दूसरों के परोपकार के लिए ही बना है। तब मदर टेरेसा कि माँ बहुत दुखी हुई और रोते-रोते भगवान के पास गयी। उन्होंने भगवान से सब बताया। हे भगवान ! मैं क्या करूं मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा हैं मै क्या करू? तभी एक आकाशवाणी हुई और आवाज़ आयी की उसे जाने दो उसका जीवन ही दूसरों की सेवा के लिए बना हुआ है। तब उनकी माँ ने उनको हंसते-हंसते बिदा किया। 18 साल की उम्र में उन्होंने ‘सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो’ में शामिल होने का फैसला ले लिया। तत्पश्चात वह आयरलैंड गयीं जहाँ उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी। अंग्रेजी सीखना इसलिए जरुरी था क्योंकि ‘लोरेटो’ की सिस्टर्स इसी माध्यम में बच्चों को भारत में पढ़ाती थीं।
सिस्टर टेरेसा आयरलैंड से 6 जनवरी, 1929 को कोलकाता में ‘लोरेटो कॉन्वेंट’ पंहुचीं। वह एक अनुशासित शिक्षिका थीं और विद्यार्थी उनसे बहुत स्नेह करते थे। वर्ष 1944 में वह हेडमिस्ट्रेस बन गईं। उनका मन शिक्षण में पूरी तरह रम गया था पर उनके आस-पास फैली गरीबी, दरिद्रता और लाचारी उनके मन को बहुत अशांत करती थी। 1943 के अकाल में शहर में बड़ी संख्या में मौते हुईं और लोग गरीबी से बेहाल हो गए। 1946 के हिन्दू-मुस्लिम दंगों ने तो कोलकाता शहर की स्थिति और भयावह बना दी।
क्या आप जानते हैं मदर टेरेसा को मदर टेरेसा के नाम से क्यों जाना जाता है ? जब मदर टेरेसा को नन बनने की ट्रेनिंग के लिए भेजा गया, तो वहा उनकी ट्रेनिंग पूरी होने के बाद उनसे पूछा गया कि आप अपने फेवरेटवहां नन (संत ) को चुनेंये तब उन्होंने ने टेरेसा चुना। तभी से हर जरूरतमंद की सेवा करने लगी और हर एक किसी की मां बनी जिसका इस दुनिया मे कोई नहीं था और जो बेसराहा थे। तभी से उनको मदर टेरेसा के नाम से जाना जाने लगा। वर्ष 1946 में उन्होंने गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों की जीवनपर्यांत मदद करने का मन बना लिया। इसके बाद मदर टेरेसा ने पटना के होली फॅमिली हॉस्पिटल से आवश्यक नर्सिग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गईं और वहां से पहली बार तालतला गई, जहां वह गरीब बुजुर्गो की देखभाल करने वाली संस्था के साथ रहीं। उन्होंने मरीजों के घावों को धोया, उनकी मरहमपट्टी की और उनको दवाइयां दीं। 7 अक्टूबर 1950 को उन्हें वैटिकन से ‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’ की स्थापना की अनुमति मिल गयी। इस संस्था का उद्देश्य भूखों, निर्वस्त्र, बेघर, लंगड़े-लूले, अंधों, चर्म रोग से ग्रसित और ऐसे लोगों की सहायता करना था जिनके लिए समाज में कोई जगह नहीं थी। ‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’ का आरम्भ मात्र 13 लोगों के साथ हुआ था पर मदर टेरेसा की मृत्यु के समय (1997) 4 हजार से भी ज्यादा ‘सिस्टर्स’ दुनियाभर में असहाय, बेसहारा, शरणार्थी, अंधे, बूढ़े, गरीब, बेघर, शराबी, एड्स के मरीज और प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों की सेवा कर रही हैं
मदर टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ के नाम से आश्रम खोले । ‘निर्मल हृदय’ का ध्येय असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों का सेवा करना था जिन्हें समाज ने बाहर निकाल दिया हो। निर्मला शिशु भवन’ की स्थापना अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता के लिए हुई। सच्ची लगन और मेहनत से किया गया काम कभी असफल नहीं होता, यह कहावत मदर टेरेसा के साथ सच साबित हुई। जब वह भारत आईं तो उन्होंने यहाँ बेसहारा और विकलांग बच्चों और सड़क के किनारे पड़े असहाय रोगियों की दयनीय स्थिति को अपनी आँखों से देखा। इन सब बातों ने उनके ह्रदय को इतना द्रवित किया कि वे उनसे मुँह मोड़ने का साहस नहीं कर सकीं। इसके पश्चात उन्होंने जनसेवा का जो व्रत लिया, जिसका पालन वो अनवरत करती रहीं।
If I really want to love we must learn how to forgive.
मदर टेरेसा को मानवता की सेवा के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए। भारत सरकार ने उन्हें पहले पद्मश्री (1962) और बाद में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ (1980) से अलंकृत किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें वर्ष 1985 में मेडल आफ़ फ्रीडम 1985 से नवाजा। मानव कल्याण के लिए किये गए कार्यों की वजह से मदर टेरेसा को 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। उन्हें यह पुरस्कार ग़रीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था। मदर तेरस ने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि को गरीबों के लिए एक फंड के तौर पर इस्तेमाल करने का निर्णय लिया।
बढती उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। वर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। उस समय मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गई थीं। इसके पश्चात वर्ष 1989 में उन्हें दूसरा हृदयाघात आया और उन्हें कृत्रिम पेसमेकर लगाया गया। साल 1991 में मैक्सिको में न्यूमोनिया के बाद उनके ह्रदय की परेशानी और बढ़ गयी। इसके बाद उनकी सेहत लगातार गिरती रही। 13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई। उनकी मौत के समय तक ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ में 4000 सिस्टर और 300 अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं जो विश्व के 123 देशों में समाज सेवा में कार्यरत थीं। मानव सेवा और ग़रीबों की देखभाल करने वाली मदर टेरेसा को पोप जॉन पाल द्वितीय ने 19 अक्टूबर, 2003 को रोम में “धन्य” घोषित किया।
विजयलक्ष्मी शुक्ला
P.V.D.T. COLLEGE OF
EDUCATION FOR WOMENMUMBAI