कवि और कविता का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित ही माना जाता रहा है। यह किसी विद्वत्जन का कथन तो नहीं पर आज कवि वही है जो कविताओं की रचना करता है तथाकविता भी वही जोअपने रचयिता को कवि की संज्ञा दे सकती है। दोनों एक दूसरे के आधार हैं।आज का कवि अपनी रचनाओं में अपने अन्तर की अनुभूतियों के करीब हो या न हो ,चन्द पक्तियों, तुकबन्दियों एव संसार के किसी क्रूर कोमल विषय की मात्र यथार्थ स्तर पर वर्णनात्मक अभिव्यक्ति प्नदान कर भी इस संज्ञा को पा सकता है, किन्तु कवि शब्द का अर्थ इतना संकीर्ण नहीं।कवि का तात्पर्यउस ज्ञानी मनुज से है जो वाह्य प्रभावों से मुक्त अपने अन्तर की साधना सेजीव जगत और ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण स्वरूप से तादात्म्य स्थापित कर सकता है । वह ऋषि , महर्षि, भी हो सकता है। वह सम्पूर्ण ज्ञानी हो सकता है। उसकी दृष्टि किसी भी भौतिक, अध्यात्मिक प्रसंग के आरपार देख सकती है।वह अन्तर के विवेक से सत्य कोउद्घाटित करता है।वेदों में प्रयुक्त कवि शब्द का अर्थतो यही है।वेदों की ऋचाओं को रचनेवाले कवि हैं क्योंकि वे विद्वत्जन हैं।वेदों कीऋचाओं सेजिस प्रतीकात्मक आलंकारिक कौशल से विश्व सत्य को उद्घाटित करने का कार्य उन्होंने किया ,वस्तुतः वही उन्हें कवि संज्ञा सेअभिहित करने का हेतु बना।उनकी अभिव्यक्ति इसी लिए काव्यात्मक मानी गई।इसलिए कि वह प्रच्छन्न मनोहारी रूप से सत्य को उद्घाटित करती गयी। यह एक विद्वान व्यक्ति का कौशल था।
वस्तुतः कवि वह है जो काल की गति -शक्ति को पहचाने । काल के उस स्वरूप को भी पहचाने जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जुड़ाहै। कभी कभी ऐसा लगता है कि हर भारतीय कवि है । कितनी आसानी से वह काल की व्याख्याएवम उसके प्रभावों की चर्चा हरेक प्राप्त दुख सुख, विकास और ह्रास की धड़ियों में अनायास कर बैठता है कि’ सबकुछ काल के वश में है’। वस्तुतः काल का यही स्वरूप सर्वत्र विवेच्य है।।सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से जुड़े इस सत्य को वह कितनी सरलता से कह जाता है।वह स्वरूप , जो सबका नियामक हैउसे पहचाननेऔर अभिव्यक्त करने की जो कोशिश करे वह कवि है।कवि ज्ञानी होता है।वह अपनी अनुभूतियों और विवेक से संसार चक्र को समझता है।वस्तुतः उपरोक्त विषय का ज्ञान जिसे हो वह ज्ञानी ही कवि है।कभी तो कल्पनाओं और यथार्थ का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत करते हुए ऐसे वैदिक कवियों ने यज्ञ कार्य की कालावधि को अत्यन्त सुन्दर ढंग से उसे उषा और रात्रि के द्वारा बुने जाल के रूप में देखा है । यह अत्यन्त सुन्दर कल्पना है।
6–साध्वपांसि सनता न उक्षिते उषासानक्ता वय्येव रण्विते।
तन्तुं ततं संवयन्ती समीची यज्ञस्यपेशः सुदुधे पयस्वती।।
हमारे सुकर्मों के कारण दिन और रात्रि मानों समय के तन्तुओं को बुनते रहते हैं ये बुनेहुए तन्तुजाल यज्ञों के हवि बलि आदि के जाल हैं जिसके अन्तर्गत पयस्वन बर्तनों की तरह वे सुन्दर मन वाले पुरस्कार आदि प्रदान करने वालेलोग भी समाहित हैं।दिनरात यज्ञकार्य मेें संलग्न ऋषिगण मानो इसकी सम्पूर्णता को एक जाल के समानवदेखते हैंजिसमें रात्री और उषा दोनों की सहभागितावरहती है। यह एक विशेष दृष्टिकोण है सम्पूर्णता में जाल बनानेवाली की अनवरत प्रक्रिया से सम्पूर्ण कालावधि को उपमित किया गया है। ( ऋग्वेद मण्डल 2 सूक्त 3-मंत्र -6।)वस्तुतःवेदों की अलंकृत भाषा के माध्यम सेकाल को दिन और रात्रि से नापने कीओर संकेत किया है।कितने दिन और कितनी रात्रियाँ!! उनमें कितनी घड़ियाँ कितने पल और छिन ! और इन सबों से सूर्य चन्द्र ,ग्रह और नक्षत्रों की गतियों का सम्पूर्ण निरीक्षण।
पर यह कल्पना हमारा लक्ष्य नहीं। दैनिक सूर्योदय से रात्रि तक के समय मे उषा और रात्रि की सहभागिता की कल्पना तो नंगी आँखों से भी की जाती ही है ,परयही नहीं,जीवन और जगत की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने वाली, संसार की उत्पत्ति और उसके विकास की प्रक्रिया को समझनेवाली सारी वैज्ञानिक प्रक्रियाओं , अनुसंधानों, परीक्षणों और आविष्कारित विभिन्न शक्तियों के द्वारा दिन रात की कड़ी मिहनत से सक्रिय रहते हुए जिन तथ्यों को जानने का दावा करते हैं, भूत , वर्तमान और भविष्य को समझने का दावा करते हैं ,उसे कवि अपनी साधना से ,योग से, बहुआयामी कल्पनाशक्ति से,समझता हैऔर अपने शब्दों से प्रगट कर सकता है।इसकी अनुभूतियाँ ब्रह्माण्ड के सत्य को समझने के लिए भी उसके योग द्वारा जाग्रत और परिपक्व मस्तिष्क की कल्पनाओं की सहायता लेती हैं और भविष्य मेंसत्य की कसौटी पर खरी भी उतरती हैं
।दिक्-कालयासमय और अंतरालयास्पेस-टाइम (Spacetime) की संकल्पना, अल्बर्ट आइंस्टीनद्वारा उनके सापेक्षता केसिद्धांत में दी गई थी| उनके अनुसार तीन दिशाओंकी तरह,समय भी एक आयाम है और भौतिकी में इन्हें एक साथ चार आयामों के रूपमें देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि वास्तव में ब्रह्माण्ड की सभी चीज़ें इसचार-आयामी दिक्-काल में रहती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कभी-कभी ऐसीपरिस्थितियाँ बन जाती हैं जब भिन्न वस्तुओं को इन सभी-आयामों का अनुभवअलग-अलग प्रतीत हो।( गूगल से साभार)
काल जो ब्रह्माण्डीय सत्य है और ब्रह्माण्ड का नियामक है, कवि की कल्पना वहाँ तक पहुँचती है और उसे वह जीव- तत्व के साथ जोड़ती है। यह जीव जो परम आत्म तत्व का अंग है, अविनाशी है, वह न जन्म लेता न नष्ट होता है, एक शरीर से तबतक उस काल विशेष तक जुड़ा होता हैजबतक उसी के प्रभाव से शरीर के प्राकृतिक तत्व अपनी आयु पूर्ण कर धीरे धीरे जर्जर होकर समाप्त नहीं हो जाते।
उस शरीर को छोड़वह जीव कहाँ जाता है, यह एक सनातन प्रश्न है जिसका उत्तर उपनिषदों में ढूँढने की कोशिश की गयी है ।चन्द्रलोक, सूर्यलोक या पृथ्वीलोक जैसे उत्तरों से आज का मानस संतुष्ट नहीं होता । पुनः इस कालचक्र पर आँखें टिक जाती हैं। काल के प्रवाह में ही संभवतः उसकी स्थिति है , एक शरीर के एक निश्चित काल प्रवाह से वह कालसूत्र में बँधकर ही अन्यत्र जाता है
थोड़ा विषयान्तर करहम यह कहना चाहते हैं कि उस शरीर विशेष से निकले जीव तत्व के साथ उसका विकसित बुद्धि तत्व अवश्य होता है जो उसके अर्जित कर्मों का प्रतीक होता है,जिसका फल कारणकार्य सम्बन्ध से उसे भविष्य में प्राप्त होता है। शरीर के संग के द्वारा भुक्त काल ही उसकी बुद्थि को परिपक्व,परिष्कृत अ थवा अपरिष्कृत रूप में उसे परमात्व तत्व की दिशा में ले जाने योग्य अथवा अयोग्य बनाता है।उपर्युक्त बातें तो शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त कर ही दी जा सकती हैंपर इसके प्रभाव को एक कवि की अन्तर्दृष्टि ही देख पाती हैं।
सम्पूर्ण प्रकृति पर काल का प्रभाव है।ऐसा लगता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के नियामक नेब्रह्माण्ड की रचना के लिए प्रकृति के साथ साथ उसके अभिन्न संगी काल को भी अवश्य ही साथ लिया होगा।काल जो अविभाज्य है, भूत वर्तमान और भविष्य में इसे विभाजित नहीं किया जा सकता।यह बहता हुआ अन्तहीन प्रवाह है।
दार्शनिकों और वैज्ञानिकों नेकाल और दिक् को एक साथ देखा है।दोनों ने हीइन्हें ब्रह्माण्ड की स्वतंत्र शक्तियाँ मान ली है। ये दोनों ब्रह्माण्ड के पृथक पृथक आयाम हैंऔर अप्रत्यक्ष भी हैं।इनको मापने के लिए पल ,घड़ी घंटे, दिन, मास वर्ष आद का प्रयोग करता है।वैशेषिक दर्शन के अनुसार आकाश ,काल ,दिक्, तथा आत्मा, ये चार विभु(सर्व्यापक ब्रह्म) द्रव्य हैं।मनस् अभौतिक परमाणु हैऔर नित्य भी।आज,कल,इस समय,उस समय,मास वर्ष आदि समय के व्यवहार का जो साधारण कारण है, वह काल है।न्यूटन के अनुसारभीकाल एक स्वतंत्रसत्ता है। काल का विशेष गुण यह है कि वह समान गति से सतत और सर्वत्र “बहता’ है और किसी भी परिस्थिति का उसके ऊपर कोई भी परिणाम नहीं होता। काल भीअनंत है।
हमारा ज्योतिषशास्त्र काल की गणना सूर्य चन्द्र और सभी नक्षत्रों के निरीक्षण के आधार पर करता है।इस काल की गणना अपने मापदंडों के आधार पर की जाती है।पल , घड़ी घण्टेआदि उसकी ईकाइयों के द्वाराअनेक प्रकार के अतीत ,वर्तमान और भविष्य केप्रभावों(फलित ज्योतिष)को भी उद्धाटित करता है।
काल को समझने के लिएभारत मेंवेधशालाओं का निर्माण किया गया।पश्चिम मे शक्ति शाली दूरबीनों की सहायता ली गयी।भारत में महाराजा जयसिंह से लेकर कई समुत्सुक व्यक्तित्वों ने इस दिशा में महान कार्य किए। इतिहास पर दृष्टि डालेंतो ये प्रयास वेदों के समय से ही किए जा रहे थे । ऋग्वेद में भी नक्षत्रों के नाम मिलते हैं । यजुर्वेद में पूरी की पूरी सूची मिलती है।खगोलशास्त्री उस समय भी सूर्य और चन्द्रमा केनिरीक्षण के आधार पर कालमापन की कोशिश कर रहेथे।
यह सब तो ठीक है पर क्या काल का महा स्वरूप महाकाल ही तो परम शक्ति नहीं,यह प्रश्न मन में निरंतर उठता है।जरा कल्पना करेंकि सम्पूर्ण काल को मापकों के द्वारा क्या मापा जा सकता है?ब्रह्माण्ड के साथ ही इस काल का अस्तित्व है।बल्कि ब्रह्माण्ड का अस्तित्व भी कब? कैसे? जैसे प्रश्नो से भी काल पर उसकी निर्भरता के संकेत मिलते हैं।काल वह महासागर है जिसमें ब्रह्माण्ड का अस्तित्व फलता, फूलता परिपक्वहोता एवं उसी के निर्देनुसार उसी में विलीन हो जाता है।
अब सम्पूर्ण ब्रह्माँण्ड कीबात छोड़ भी देंतो अपने इर्द गिर्द के संसार या विश्व तक अपने को सीमित करने पर भी अणुअणु पर उस काल के हस्तक्षेप का अनुभव हम करते हैं।संसार की जितनी वस्तुएँ हैों, लघुतम से महत्तम जीव हों ,प्रकृति द्वारा चारो ओर बिखेरे गये सुन्दर या असुन्दर अस्तित्व हों, मानव द्वारा निर्मित छोटी से छोटी अथवा बड़ी से बड़ीवस्तुएँ हों,महल महलात, कल कारखाने, जल, वायु अथवा अंतरिक्षयान ही हों, कोई भी इस काल के प्रभाव से मुक्त नहीं।
वह अनादि है और अनन्त भी, अतः मेरी दृष्टि मेंवह स्वयं का एक चक्र है । कालचक्र।।बातें विश्व की हो रही हैंतो प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण यह काल विचारों काभी संवाहक है।इसी की सहायता से मन और बुद्धि तत्व का प्राणतत्व के साथ विकास होता है।यह काल ही विशेष अवधारणाओं को व्यक्ति जीव मे प्रत्यारोपित करता है ।विभिन्न वादों, सिद्धांतों का जन्म भी व्यक्ति के मन के साथ काल के घात प्रतिघात से ही होता है । हम हर विकास के लिए बदलते हुए समय को हीउत्तरदायी मानते हैं।
युगानुरूप विचार व्यवहार बदलते हैं।ज्ञान विज्ञान और कौशलविशेष भीविशेष स्वरूप ग्रहण करते हैं जिसे हम विकास के सोपानसे अभिहित करते हैं।विकास की ये सारी प्रक्रियाएं नैरन्तर्य को प्राप्त करती हैं।हमारे औपनिषदिक एवं पौराणिक साहित्यों में एक ऐसे समय कीकल्पना भी की गयी है जब ये सारे विकास विनाश के उपक्म सिद्ध हो जाते हैं और अन्ततः उस महाकाल के महासागर में समा जाते हैं जिसे हम प्लयकाल की संज्ञा देते हैं।
गम्भीरता से विचार करें तोऐसा प्रतीत होता है कि वह काल ही वह कारणस्वरूप हैजो जन्म, परिवर्तन और विकास का कारक है।वह समाप्त होनेवाला नहीं है। अपने चक्र में समस्त ब्रह्माण्ड को चक्रायित करता है।भारतीय शास्त्रीय विवेचनानुसार सत्ययुग,त्रेता, द्वापरऔर कलियुग के पश्चात हम पुनः सत्ययुग में प्रवेश करने की कल्पना करते हैं। कई विद्वान संतों के अनुसार यह कुछ अलग सा भी है। महान योगी श्री युक्तेश्वर के अनुसार तो हम कलियुग को पार कर विपरीत युगकाल द्वापर में पहुँच चुके हैं। यह चक्र की विपरीत गति है।हम चाहे जिसे मानें । काल के इस प्रवाह में जीवात्म भी प्रवाहितहोता हैइतना सहज कल्पनीय लगता है।
मन का एक प्रश्न तब भी शेष है कि इस काल की भूमिका एक जीव के लिए क्या यही ह? एक शरीर के समाप्त होने पर जीव इस कालप्रवाह में अन्य शरीरों को भी धारण कर सकता है और कई अन्यलोकों में भी विचरण कर सकता है।वे ऐसे लोक हो सकते हैं जिनकी एक अलग सृष्टि हो,।कहीं ऐसा तो नहीं इस भूलोक का विकसित जीवात्म अन्तरिक्ष के अन्य ऐसे लोकों के विकसित जीवों के रूप में जीवन जीता हो ! काल के प्रभाव में विकास प्राप्त जीवात्म इस क्रम में अन्य विकासप्राप्त लोकों में जन्म ले सकता है। काल संभवतः विकास की उसकी यात्रा के द्वारा परम आत्म तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त कर दे।किन्तु वे लोक कौन होंगे, यह भी एक प्रश्न है ।इन प्रश्नों का उत्तर काल ही दे सकता हैया फिर शास्त्रों द्वारा वर्णित कोई कवि ही अपनी अन्तर्दृष्टि और कल्पनाशक्ति से इन गहराईयों मे झाँक सकता है। कल्पना की शक्ति दिकऔर काल से परे जा सकती है। अस्तु ।
आशा सहाय।