कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
हवा की मदमस्त ऊंचाईयों पर लहराने वाले देश के तरंगे को सलाम है । हमारे देश की स्वतंत्रता के इस पावन पर्व पर उन शहीदों को स्मरण कर उन्हें भी सलाम है जिनकी कुर्बानियों हमें आजाद भारत की स्वर्णमयी धरा को सौंपा है । हर भारतवासी गर्व से अपने मस्तक को ऊंचा कर शहीदों को भी नमन करता है और देश की स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे को भी । आजादी के इस अमृत महोत्सव पर चिन्तन तो हम करेगें कि हमने अपनी यात्रा शून्य से प्रारंभ कर कहां तक हम पहुंचे हैं । विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का गर्व मस्तक पर धारण कर हमने अपने लोकतंत्र को कितना मजबूत किया है अथवा क्या अब वह कमजोर दिखाई देने लगा है । अब हर बार लोकतंत्र को लेकर चिन्ता प्रकट करने वाले विपक्ष की बातों में कितनी सच्चाई है । 75 वर्ष हो गए हमारी स्वतंत्रता को । हम आजादी का अमृत महोत्सव मना भी रहे हैं । ‘‘जनगण मन अधिनायक’’ की मधुर स्वरलहरियां हमारे तन और मन में जोश भर रहीं हैं । हम नतमस्तक हैं अपने तिरंगे के सामने और हवा में शान से लहराता तिरंगा हमेें हमारे ‘विश्व गुरू’’ हो जाने का संकेत दे भी रहा है । 75 साल आजादी के, अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के, नापाक इरादा रखने वालों पर प्राप्त विजय के । अमृत तुल्य तो है यह । हम आजाद हैं और गर्वोन्मुक्त हैं । चेहरे पर दमक, मन में उत्साह और ओंठों से निकलते देशभक्ति गीत । आईये हम अपने प्यारे भारत देश की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मना लें । ‘‘जनगणमन अधिनायक जय है’’ के गूंजते स्वर और ‘‘सुजलां सुफलां शस्य श्यामला मातरम्’’ की अनुगूंज के बीच हम हाथ उठाकर सलामी दें अपने राष्ट्रीय ध्वज को । ‘‘लहर-लहर लहराये तिरंगा’’ को देख लें नजर भर कर । यही तो हमारी आन,बान और शान का प्रतीक है । देशभक्ति कब किसी को सिखाई जाती है वह तो हमारे खून में स्वतः परिलक्षित होती है । हम गाते हैें तो सीना अपने आप फूल जाता है और आखों के सामने अपनी भारत माता की तस्वीर उभर आती है । कानों में सुनाई देने लगते हैं स्वतत्रंता संग्राम सेनानियों के द्वारा गाए वो गीत जो उनमें भर देता था उत्साह और वे अपना घर-द्वार छोड़कर कूद पड़ते थे आन्दोलनों में ताकि अंग्रेजों को कहा जा सके ‘देख लो हमारी ताकत…तुम एक को मारोगे तो हम हजार आगे आ जायेगें’’ । सेनानियों की कमी नहीं थी, उनके पास जज्बातों की कमी नहीं थी । पत्नी अपने पति को रोकती नहीं थी, माॅ अपने बेटे को आंचल का वास्ता देकर उनके बढ़े हुए कदमों पर अवरोध नहीं डालती थी और पिता तो गर्व से सीना चैड़कर विदा करता था अपने बेटे को ताकि वह भी भारत की स्वतंत्रता के आन्दोलनों का हिस्सा बन सके । लाशों के ढेर लग जाते थे पर चेहरे की दमक कम नहीं होती थी । अंग्रेज सरकार गोलियों के तूफान से भी नहीं रोक पाते थे इनके कदम । सीने में गोली खाया सैनिक ‘‘वंदेमारम्’’ बोलते हुए तज देता था अपना नश्वर शरीर । खून से लथ-पथ इनके निर्जीव शरीर पर दहाड़ मारकर कोई नहीं रोता था बल्कि गर्व से सम्मान के साथ सजा दी जाती थी अर्थी । जाने कितने ऐसे भी लोग रहे हैं जिन्हें तो अर्थी भी नहीं मिली और चिता भी । परिवार के लोग उनके अंतिम दर्शन तक नहीं कर पाए । अंग्रेजों द्वारा हमारे स्वतत्रंता संग्राम सेनानियों को दी गई क्रूर यातनाओं के किस्से आज भी रोंगटे खड़े कर देते हैं । ओह कितना भंयानक मंजर होगा तब, हम तो कहानियों में ही सुनते हैं यह सब और किवदंती के रूप में याद कर लेते हैं उस मंजर को । इस जज्बात ने ही तो हमें आजादी दिला दी । हम आजाद हो गये । पन्द्रह अगस्त 1947 का सूर्य हमारे लिए नई आशाभरी किरणों के साथ उदित हुआ । इस आजाद भारत में हमने बहुत सारे स्वप्न बुने और अपना सफर तय करना प्रारंभ किया । हम याद कर लेते हैं उन वीर शहीदों की जिनके बलिदान ने हमें पराधीनता के वातावरण से मुक्त कर स्वतंत्रता का वातावरण प्रदान किया । लाखों, हजारों, सैंकड़ों बलिदानियों के संकल्प को कोई भी भारतवासी विस्मृत कर भी कैसे सकता है । सर पर कफन बांधकर सीना चैड़ा कर ‘‘शायद ही घर लौट पाऊं’’ के भावों को अंगीकार कर निकलने वाले पराधीन भारत के युवाओं के सपनों का भारत । अपने पिता, अपने बेटा और अपने पति को माथे पर तिलक लगाकर इस भयावह मार्ग पर भेजने वाली इस देश की महान महिलाओं के सपनों का भारत । देश के लगभग हर घर से निकलने वाले क्रांतिकारियों का समूह अंग्रेजों के अत्याचार को सहन करते हुए ‘‘वंदे मातरम्’’ को गाते हुए ‘‘जननी जन्म भूमि स्वर्ग से महान है’’ को आत्मसात कर मुस्कुराते हुए चिढ़ाते थे अंग्रेज हुकुमत को ‘‘तुम्हारे कोड़े, तुम्हारी बंदूकें, तुम्हारी क्रूरता’’ हमें विचलित नहीं कर सकती । महिलायें सिर पीटकर रोती नहीं थीं अपनों का शव देखकर बल्कि वे गर्व और अभिमान से मुस्कुरा पड़ती थीं ‘‘काश और बेटे होते हमारे वे भी इस महान युद्ध के साक्षी बन जाते’’ के मनोभावों के साथ आदर करतीं थीं, सलामी देती थीं अपने परिजनों के रक्तरंजित शवों को । यही तो हमारी संस्कृति है, यही तो हमारे संस्कार हैं, यही तो हमारी परंपरा है ‘‘देश के लिए न्यौछावर हो जाना’’ । जेलों में बंद, भूखे-प्यासे अत्याचार झेलते इन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को तो पता भी नहीं था कि हम कब आजाद होंगे हम, पर वे इतना महसूस अवश्य करते थे कि उनका बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जायेगा और हमारे प्यारे देश को एक न एक दिन अंग्रेजी शासन से मुक्ति अवश्य मिलेगी । इतिहास के पन्ने गवाह हैं अंग्रेजों की चालाकी और क्रूरता के, इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि इस कू्ररता के आगे समर्पण न करने वाले हमारे बलिदानियों की मुस्कान के । आजादी के गीत गाते-गाते फांसी के फंदे पर झूल जाने वाले क्रांतिकारियों के हौंसलों के । इतिहास के पन्ने बदले नहीं जा सकते, जो गुजर कर अतीत बन गया है उसे झुठलाया नहीं जा सकता और न ही आज विशलेषित किया जा सकता कि ऐसा क्यों किया गया याकि ऐसा किया जाता तो बेहतर होता । उस समय की परिस्थितियां आज हमारी कल्पनाओं से भी अधिक भयावह थीं, रोंगटे खड़े कर देने वाली कहावत की जीवंत तस्वीर थीं । हम इतिहास को बदलने की अपेक्षा इस इतिहास को याद कर अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए चिन्तन करें कि इन 75 वर्षों की यात्रा में हम कहां खड़े हैं । शून्य से प्रारंभ हुआ सफर हमें कितनी दूरी तक लेकर आ गया है । नव पीढ़ी के लिए इस आजादी के मायने हैं क्या ? संघर्षों से रक्तरंजित पन्नों का सुनहरापन कहीं हमारी स्वछंदता से धूमिल तो नहीं हो रहा है ? प्रश्न हैं हमारे सामने और हर एक प्रश्न का उत्तर खोजा जाना आवश्यक है । हमने जिस पवित्र लोकतंत्र के संकल्प के साथ अपनी यात्रा प्रारंभ की, हमने जिस संविधान को अंगीकार कर उसकी सौगंध ली, हमने जिस कंटकीर्ण पथ को सुमनपथ में बदल लेने के प्रण के साथ मंजिल की और अपने कदम बढ़ाये, हमारी कल्पनाओं के उस हिमालयीन शिखर तक हम कितना पहुंचे । चिन्तन तो करना होगा, हम कहीं भटकाव भरे पथ के अनुगामी तो नहीं बन गए, सोचना तो होगा, हमने कहीं अपनी स्वतंत्रता की परिभाषा को ही बदल तो नहीं दिया, विचार तो करना होगा, क्योंकि हमारे ऊपर लाखों शहीदों के बलिदान और उनकी कल्पनाओं का भारत बनाने की जिम्मेदारी है । हम केवल ‘‘शहीदों की चिताओं पर लगेगें मेले’’ के प्रदर्शन के सहारे उनके वास्तविक संकल्पों से अपने आपको दूर नहीं कर सकते । विकास यात्रा, प्रगति पथ और असीमित भौगोलिक सीमाओं के जर्रे-जर्रे पर रहने वाले भारतवासियों के चेहरे पर संतोष की मुस्कान का लक्ष्य यही तो हमारा प्रण था, पर हम कहां तक पहुंचे, हमने कितने रोते हुओं की तस्वीर और तकदीर बदल दी, हमने कितनों को आजादी के मायने का अहसास दिला दिया इसका चिन्तन भी तो हमें ही करना होगा और यदि हम अभी तक इसकी सफलता के समीप भी नहीं पहुंचे हैं तब हमें आजादी के इस पर्व पर फिर से सकंल्पित होना होगा और नए सिरे से अपनी नई योजनाओं के साथ इस संकल्प पूर्ति की दिशा में कदम बढ़ाने होगें । हमें गर्व है अपने तिरंगें पर, हमें अभिमान है अपने राष्ट्र पर हमें विश्वास है अपने संकल्पों की पूर्ति पर । आइए हम इस तिरंगे को सलाम करें, आइए हम अपनी आजादी के इस महान पर्व को आत्मसात करें, आइए हम इस अमृत महोत्सव के अमृत की एक-एक घूंट का रसपान करें । हमारे आंेठों पर हमारा राष्ट्रगान हो, हमारे कंठ पर हमारा राष्ट्र गीत हो, हमारे सीने में राष्ट्रभक्ति की नई इबारत हो, हमारी भुजाओं में देशभक्ति का उठाव हो । हमारा मस्तक हमारे शहीदों के लिए नतमस्तक हो ।