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अन्य जातियों के आंदोलन से सीखने की जरूरत , सवर्णों की निजी राजनीतिक लिप्सा पतन का कारण

पंकज सीबी मिश्रा / राजनीतिक विश्लेषक एवं पत्रकार जौनपुर यूपी

 ब्राह्मण  संगठनों को भी आगरा राजपूताना आंदोलन से सीखना चाहिए कि अपने जाति के अधिकारों और सम्मान के प्रति जागरूकता कितनी आवश्यक है ! आन्दोलन का मतलब किसी का अपमान अथवा तोड़फोड़ नहीं  अपितु आगामी पीढ़ियों के भविष्य को सुरक्षित रखने की लड़ाई लड़ना है । अब राजनीति में बात सिर्फ राजपूताना स्वाभिमान की नहीं बल्कि संपूर्ण सनातन और राष्ट्र के गौरव की थी । जिन राणा सांगा ने राष्ट्रधर्म के लिए अपनी आंख गंवाई, एक हाथ और पैर गंवाया, शरीर पर 80 घाव खाए, 100 युद्ध लड़े और जीते । यूपी के आगरा में युवा हाथों में तलवार , माथे पर केसरियां साफा, हृदय में जुनून, मुख पर जय भवानी का उद्घोष और मन में राणा सांगा के सम्मान की धधकती ज्वाला लेकर सपा के खिलाफ जब मैदान में उतरे तो योगी सरकार पार्ट:3 की पटकथा लिख दी गई । क्षत्रिय समाज ने सपा के राजनीति को खत्म करने की जो सौगंध खाई है उससे चंदौली के सांसद बीरेंद्र सिंह और अन्य स्वार्थी नेताओं को सबक लेना चाहिए । उत्तर प्रदेश के तमाम राजपूत संगठनों ने अपना विरोध दर्ज कराने से पहले लखनऊ स्थित बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर जी की प्रतिमा पर पुष्पार्चन किया और फिर बाबा साहेब अमर रहे के नारे लगा बाबा साहब को भी एकाधिकार से मुक्त करवा लिया । खास जातीय संगठनों द्वारा बाबा साहब पर कब्जा किया गया जिसके दृष्टिगत कुछ समय से उच्च तबके ने बाबा साहब को उन राजनीतिक गिद्धों से मुक्त कराने को लेकर मुहिम छेड़ दी जो अब कामयाब होती दिख रही । क्षत्रिय आन बान शान से बड़ा कुछ नही और अब अगर ऐसे में एक भी राजपूत वोट सपा को जाता है तो समझिए आपके अंदर का राजपूतपना मृत हो चुका है । जब भगवा रंग में रंगे लाखों राजपूत आगरा में जमा हुए तो पूरा देश एकटक होकर उन्हें देख रहा था और उधार सपा सुप्रीमों चिंतित थे । हिंदू समाज में विघटन पैदा करने की दृष्टि से दलित सांसद रामजी लाल सुमन को आगे करके अखिलेश यादव द्वारा की गई घटिया राजनीति सपा के लिए आत्मघाती साबित होने जा रही है। राजपूत संगठनों खासकर करनी सेना ने स्पष्ट किया कि उन्हें दलितों से, दलित नेताओं से, उनके महापुरुषों से कोई समस्या नहीं है उन्हें दिक्कत इस बात से है कि कोई इस्लाम हिमायती हिंदू नेता ( सपा सुप्रीमों) हिंदुओं में विभाजन पैदा करने के लिए एक दलित नेता को बलि का बकरा बनाता है।  दलितों के प्रति अखिलेश यादव को कोई खास सहनुभूति नही । उन्हें शायद नहीं पता है कि काठ को हांडी बार बार नहीं चढ़ती। हिंदू समाज ने 2024 चुनाव से कुछ तो सबक सीखा है अगर नही सीखा तो बंगाल में घूम कर आ जाए एक बार और वह दोबारा गलती करने के मूड में नहीं लग रहा है।

        स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र के मंदिर संसद में सपा के इसारे पर सपाई द्वारा उन्हीं राणा सांगा को  गाली दी गई ।इसके बाद भी अगर राणा के वंशजों का खून नहीं खौलता तो देवों की लोकसभा स्वर्ग में बैठे हुए राणा सांगा शर्मिंदा हो जाए। कार्यक्रम भले राजपूत समाज और करणी सेना का था लेकिन इसे समर्थन संपूर्ण हिंदू समाज का था, यहां तक की कार्यक्रम की अनुमति भी हिंदू सनातन सभा के नाम से स्वीकृत थी । जुटान भले देशभर के राजपूतों का था लेकिन समर्थन दलित, पिछड़ों ब्राह्मण, वैश्य सभी वर्गों का था।जिस करणी सेना को अधिक आलोचना का सामना करना पड़ा है, आज समस्त सनातनी एक सुर में उसी करणी सेना का वंदन कर रहे थे। यही कारण था कि आगरा में इतनी भीड़ के बाद भी ।कोई हिंसा नहीं हुई। कोई अराजकता नहीं हुई। कही कोई कानून व्यवस्था खराब नहीं हुई । कहीं राष्ट्र की संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाया गया । लहराती तलवारें इस बात की गवाह बनी कि जिन राणा ने राष्ट्रधर्म के अपनी बोटी-बोटी कटवा दीं, उनके सम्मान के लिए आज भी संघर्ष हो सकता है । लेकिन ये अनुशासन इस बात का भी संदेश बना बना कि हम राणा और अपने पूर्वजों के सम्मान के लिए प्रदर्शन तो करेंगे लेकिन इस प्रदर्शन की आड़ में अपनी भारत माता को घायल नहीं करेंगे और अपने भारत की संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे । विपक्षी दल इंतज़ार में थे कि राजपूतों के प्रदर्शन में अराजकता और हिंसा हो ताकि वो अपनी सियासी रोटियां सेंक सकें, उन्हें निराशा हाथ लगी है ।

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