राजनीतिक सफरनामा
राज्यपाल को राह दिखाई कोर्ट ने
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
माननीय सर्वोच्च न्यायालय का एक फैसला इन दिनों चर्चाओं में हैं । ‘‘राज्यपाल किसी पार्टी के प्रतिनिधि के प्रतिनिधि नहीं बन सकते’’ इस सख्त टिप्पणी के बहुत गहरे मायने हैं । तमिलनाडु सरकार द्वारा वहां के गवर्नर द्वारा विधानसभा में पारित प्रस्तावों को रोके जाने के संबंध में राज्य सरकार ने याचिका दाखिल की थी । सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस जेबी पारदीवाल और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने सुनवाई कर साफ कर दिया कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं होता उन्हों मसर्गदर्शक और संयोजक की भूमिका निभानी चाहिए । दरअसल भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 में राज्यपाल के कार्य निर्वहन की कोई स्पष्ट समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है । इसके चलते ही राज्यपाल विधानसभा में पारित विधयेकों को तब तक रोकने की कोशिश करते हैं जब तक वे उससे संतुष्ट नहीं हो जाते । पर अब सुप्रीमकोर्ट ने साफ कर दिया है कि अनुच्छेद 200 में यह तो है ही कि राज्यपाल को निर्णय शीघ्रता से लेने चाहिए । कोर्ट ने अनुच्छेद 142 में दी गई असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हुए तमिलनाड विधानसभा द्वारा पारित वे सभी विधेयक जिन्हें राज्यपाल ने हस्ताक्षर नहीं किए थे उन्हें उसी तिथि से पारित और लागु हुआ मानने का आदेश दिया है । तमिलनाडु सरकार ने अपनी याचिका में बताया था कि उनके कीरब दस विधेयक हैं जिन्हें राज्यपाल द्वारा रोका गया था जबकि इन्हें दोबारा भी विधानसभा में पारित कर उनके पास हस्ताक्षर के लिए भेजा गया था । माननीय सार्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्यपाल को एक से तीन महिने के अंदर विधानसभा से पारित विधेयकों पर फैसला लेना होगा,यदि राज्यपाल विधेयकों पर सहमति नहीं देते तो तीन माह में इसे विधानसभा में लौटाना होगा, पर यदि विधानसभा विधेयक को पुनर्विचार के बाद दोबारा राज्यपाल के पास भेजे तो उन्हें एक माह में इसकी मंजूरी देनी होगी । कई राज्यों में राज्यपाल की कार्यप्रणाली को लेकर असंतोष महसूस किया जाता रहा है और वे कोर्ट में जाकर इसका समाधान खोजने का प्रयास करते रहे हैं । ऐसा करना लोकतंत्र और संविधान के लिए बेहतर नहीं है । तमिलनाडु में ही 2023 में राज्यपाल ने अभिभाषण पढ़ने से मना कर दिया था, उल्लेखनीय है कि यह अभिभाषण मंत्रीपरिषद के माध्यम से ही राज्यपाल के पास जाता है जिसे उन्हें विधानसभा सत्र के प्रारंभ में पढ़ना होता है । तेलंगाना में जब राज्यपाल द्वारा बजट स्वीकृत करने से मना कर दिया गया तो वहां की सरकार को कोर्ट जाना पड़ा और फिर कोर्ट के निर्णय के बाद समझौता हो पाया । पंजाब में राज्यपाल ने भी सात विधेयकों को रोक दिया था जिसके खिलाफ राज्य सरकार कोर्ट गई थी और कोर्ट ने उन्हें राहत दी । पश्चिम बंगाल में तो राज्यपाल और मंत्रीपरिषद के बीच टकराहट बनी ही हुई है तात्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ के बाद अब आनंद बोस के साथ वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच विवाद बढ़ता जा रहा है । राज्यपाल और राज्य के मंत्रीपरिषद का विवाद कई बार हुआ है और कई बार माननीय न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा है । दिल्ली में आप पार्टी की सरकार के दौरान तो कई बार वहां के उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच विवाद गहराया । माननीय न्यायालय ने तब भी उपराज्यपाल और मंत्री परिषद के बीच कार्यविभाजन किया था । यह लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत तो नहीं माने जा सकते । राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में काम करते हें और उन्हें राज्य सरकार के साथ समन्वय बनाकर चलना होता है । उन्हें राज्य मंत्रीपरिषद की सलाह पर काम करना होता है । वे एक बार विधानसभा में पारित प्रस्तावों को पुर्नविचार के लिए तो मंत्रीपरिषद को भेज सकते हैं पर जब मंत्रीपरिषद या विधानसभा उसे दोबार पारित करा कर उनके पास भेजती है तो फिर उन्हें उस पर हस्ताक्षर करने होते हैं । अमूमन ऐसा ही देखा गया है और अब माननीय सुप्रीमकोर्ट ने भी इसे तय कर दिया है । कोर्ट ने तो साफ ही कह दिया है कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं होता याने वह नामंजूर करे इसका अधिकार नहीं होता । सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद उम्मीद है कि राज्यों में राज्यपाल और वहां की मंत्रीपरिषद के बीच होने वाली टकराहट पर विराम लगेगा । कई राज्य सरकारें राज्यपालों के कार्य करने की तरीकों से परेशानी का अनुभव करती रही हैं जिस पर अब विराम लगेगा । विराम तो अब आत्महत्या जैसे आराधिक कृत्यों पर भी लगता आवश्यक हो गया है । 2008 मुबई हमलों का दोषी तहववुर राणा को आखिर भारत ले ही आया गया । यह निश्चित ही भारत की बड़ी कूटनीतिक जीत है । बताया जाता है कि यह ही वह व्यक्ति है जिसने भारत में हमलों की साजिश रची थी जिसमें 166 लोग मारे गए थे और 238 से अधिक व्यक्ति घायल हुए थे । भारत-अमेरिका के बीच प्रत्यार्पएा संधि हुई थे जिकसे तहत राणा को अमेरिका ने पहले बंदी बनाकर रखा फिर भारत को प्रत्यारपित किया है । अब भारत की ऐजंसियां उससे पूछताछ करेगीं और उस पर भारत की न्यायिक प्रक्रिया के तहत मुकद्दमा चलाया जाएगा । उम्मीद कि राणा से बहुत महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होगीं ।
आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं समाज के लिए कलंक हैं । वीडियो बनाकर आत्महत्या करने की कई घटनायें सामने आ चुकी हैं । समाजकि संस्कृति का होता पतन और खत्म होती नैतिकता ने अनेक विकृतियों को जन्म दिया है । पाश्चात्य संस्कृति का दीवानापन व्यक्ति को एकाकी बना रहा है जो मानकिस वेदना और अवसाद का कारण बनता जा रहा है । यह बहुत दुखद किन्तु सत्य ही है कि मध्यप्रदेश में आत्म हत्या करने वालों के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं । एनसी आरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो) का दावा है कि भारत में प्रतिदिन 42 लोग या प्रति घंटे दो लोग आत्महत्या कर रहे हैं वहीं राष्ट्रीय औसत 468 आत्महत्या का है । देश के हर बड़े राज्यों में यह आंकड़ा सबसे अधिक है वहीं छोटे शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में भी आत्महत्या के प्रकरण बझ़ रहे हैं जो चिन्ताजनक हैं । आत्महत्या करने वालों में 18-30 वर्ष की आयु के सबसे अधिक लोग हैं वहीं महिलाओं का आंकड़ा भी बढ़ा है । अब तो पूरा का पूरा परिवार ही आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध कर रहा है । विगत एक वर्ष में हुई आत्महत्या की घटनाओं ने स्वाभाविक रूप से सभी को चिन्तित तो किया ही है । पति-पत्नी के बीच बढ़ने वाला विवाद अब नई भूमिका में आ चुका है । निश्चित ही इससे बच्चों का जीवन प्रभावित हो रहा है । इसके पूर्व परीक्षा परिणाम आने के बाद विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या करने के प्रकरण सामने आते थे पर इनमें अब कमी आ गई है परंतु अन्य कारणों से की जाने वाली आत्महत्या के प्रकरण बढ़ते दिखाई देने लगे हैं । आत्महत्या निरशा, अवसाद और अकेलेपन का परिणाम होती है । बढ़ता आर्थिक बोझ, भौतकतावाद से सामंजस्य न बैठा पाना, मानसिक स्वास्थ्य स्थितियां जो मनोविकृति का कारण बनती हैं । पिछले कुछ दिनों से पारिवारिक विवाद इसकी मुख्य वजह बनती जा रही है । एक वयक्ति समाज से तो संघर्ष कर लेता है पर पारिवारिक विवाद में अपने आपको असहाय महसूस करता है । उनको कोई दूसरा विकल्प समझ में नहीं आता । वे वास्तव में मरना नहीं चाहते पर उन्हें लगता है कि जब वे रहेंगें ही नहीं तो उनकी समस्या भी नहीं रहेगी । आत्महत्या के बझ़ते आंकड़ों के बीच अब समय आ गया है कि सरकार और समाज मिलकर जागरूकता अभियान चलाएं । एक वयक्ति की जान की कीमत केवल एक समस्या नहीं हो सकती और सच यह भी है कि आत्महत्या समस्या का हल भी नहीं है । एक व्यक्ति की आत्महत्या एक पूरे परिवार को अंधकार में ढकेल देती है । विचारों पर काबू पाया जा सकता है । अवसाद के प्रभाव में पड़े व्यक्ति को काउंसलिंग के माध्यम से अवसाद से बाहर निकालने की चेष्टा की जानी चाहिए । हिन्दु र्ध्मा में आत्महत्या को घृणित कार्य बताया गया है जो किसी की हत्या करने जैसा पाप होता है । हिन्दु र्ध्मा ग्रंथ बताते हैं कि आत्महत्या करने वाला ही भूत योनि में तब तक बना रहता है जब तक उसका धरती पर जितना जीवन शेष था उतना पूरा नहीं हो जाता । वह तड़फता है और यहां से ज्यादा अवसाद में रहता है, कष्टों में रहता है । फिर जब आत्महत्या करने के बाद भी आपके साथ बेहतर नहीं हो रहा है तो फिर आत्महत्या क्यों ? स्वास्थ्य विभाग ने ‘‘गेटकीपर्स’’ योजना प्रारंभ की थी जिसके तहत 500 से अधिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया गया था जो डिप्रेशन से जूझ रहे लोगों की पहचान कर उनकी मदद कर सकें । पर यह योजना ज्यादा बेहतर साबित नहीं हुई । सामाजिक जागरूकता ही इसका बेहतर उपाय और इसमें स्वंयसेवी संगठनों को आगे आना चाहिए । आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े डरावने हैं और अब इसको रोकने के उपाय किए जाने जरूरी हैं ।