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नैनों की भाषा

सर्वस्व सौंप चुकी हूँ तुमको

मेरा तन मन अब तुम्हारा है
हूँ कब से आस लगाए बैठी
हर सांस में नाम तुम्हारा है।

दुनिया के मेले लगते हैं सूने
तुम गर साथ हो तो बहारें हैं
तेरे बिन अब जीना मुश्किल
फीके लगते चाँद सितारे हैं।

जीवन तनहा गुज़र ना जाए
मधुर मिलन की बेला आए
मन में जागी है अभिलाषा
अब समझो नैनों की भाषा।

जयश्री शर्मा ‘ज्योति’
लघुकथा

जाके पैर न फटे बिवाई

वो क्या जाने पीर पराई

लॉकडाउन के चलते घर के कार्य करने वाली दीदी के अनुपस्थिति में तनु और शैलेश के परिवार
की पूरी जीवनचर्या ही अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। घर का समस्त कार्य उनके उपर आ पड़ा था।
ऑफिस का काम भी घर से करना होता था और बच्चे भी स्कूल बंद होने के कारण घर पर ही थे।
उनकी ऑनलाइन कक्षाएं चल रही थी।

तनु और शैलेश यद्यपि घर के कार्यों में को मिलजुल कर निपटा रहे थे,परंतु हर समय किसी न
किसी कार्य को पूरा करने की जरूरत पड़ रही थी। शैलेश ने तनु से कहा कि काम करने वाली
दीदी को इस माह की तनख्वाह तो दे चुके हैं परंतु अब लॉकडाउन के महीने की तनख्वाह नही
देंगे, क्योंकि वह काम पर नही आ सकी थी। तनु इससे सहमत नहीं थी। वह सोच रही थी कि
तनख्वाह के बिना दीदी का घर कैसे चलेगा ? इस बात पर रोज़ उनका तर्क-वितर्क होता
रहता।

एक दिन शैलेश को उसकी कंपनी की तरफ से मैसेज आया कि लॉकडाउन से कंपनी को होने
वाले नुकसान की वजह से इस बार पूरे स्टाफ को 25% काटकर वेतन दिया जाएगा। वेतन का
25% भाग जमा रहेगा और तब मिलेगा जब कंपनी को लाभ होने लगेगा।

अचानक शैलेश को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने तनु के पास आकर उस से कहा कि
हम दीदी की तनख्वाह नही काटेगें। तनु का मन इस बात को सुन कर खुश हो गया।

जब तक विपदा मनुष्य पर नहीं आती तब तक उसे दूसरे की परेशानियों का ध्यान नहीं आता।
यह बात सच है कि ‘जाके पैर न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई’।