हल्की हल्की बारिश हो रही थी और हवा भी सर्द थी । रजाई में ही बैठे बैठे थोड़ी सी गर्म चाय मिल जाती तो कितना अच्छा होता पर नहीं ऐसा नहीं हो सकता था। घर में गहमागहमी
का मौसम पसरा पड़ा था क्योंकी दादी जी की
हालत ख़राब थी । कुछ समय बाद उनको नीचे
जमीन पर लिटा दिया गया और बताया गया कि
अब वे कुछ ही घंटों की मेहमान हैं । हम लोगों को पहले तो यह लग रहा था कि वे ठीक हो
जायेंगी पर ऐसी खबर पाकर दिल भर आया ।
दादी की उम्र करीब नब्बे वर्ष के करीब ही थी किन्तु वह पूर्णतया स्वस्थ थीं । वह अपने
सारे काम स्वयं ही कर लेती थी जैसे की नहाना टहलना आदि । उनकी चार बहुएं तथा पांच बेटे थे ,वो भी आज्ञाकारी । किसी से जरा सी गलती हुई नहीं की गालियों की बौछार लगा देतीं । खाने में जरा सी कमी हुई नहीं की खाने की थाली तड़ाक से आंगन में फेंक देती थी । पहले
खाना भी ज्यादातर फूल की थाली में खाया जाता था तो फूल की थाली भी चिटक जाती थी। अगर और गुस्सा बढ़ गया तो बहुओं पर
हाथ भी उठा देती थी पर करता मजाल की
कोई जवाब भी दे सके । जब तक पूरा परिवार
खाना न खा ले बहुएं एक रोटी का टुकड़ा भी मुंह में नहीं डाल सकतीं थीं ।
घर में दादी जी के और भी कई नियम
चलते थे । बहू ने अगर पोते को जन्म दिया तो
उसकी सेवा खान-पान आदि पर विशेष ध्यान
दिया जाता । सवा महीने तक उसकी विशेष
रूप से आवभगत होती । वहीं अगर बहू ने पोती को जन्म दिया तो गालियों से स्वागत होता और यही नहीं दूसरे दिन से ही घर के
काम में भी लगा दिया जाता खान-पान की तो
कोई बात ही नहीं होती । बहुएं सास से ज्यादा
अपने पतियों से भी डरती थीं क्योंकि मां के एक इशारे पर वे उनकी जान भी ले सकते थे।
बहुओं के मन में डर था और उसी डर के कारण
सास की हर आज्ञा उनके लिए सिरोधार्य था ।
आंगन में हलचल बढ़ रही थी हम लोग भी बीच बीच में पर्दे से झांककर देख लेते क्योंकि हम लोगों को सबके बीच जाने कीअनुमति नहीं थी । अचानक चाचाजी की आवाज़ आई,” अरे
जल्दी जल्दी मछली बना लो नहीं तो फेंकना
पड़ जायेगा ।” अब घर के कुछ लोग मछली
बनाने में लग गये । मछली बना सभी आदमियों
ने खाया लड़के-लड़कियों ने भी खाया तथा घर
की औरतों ने भी चुपके-चुपके छिपकर खाया।
सबके खाना खा लेने के करीब एक घंटे बाद दादी ने अन्तिम सांस ली । सभी चाची तथा मम्मी के रोने की आवाज सुनाई देने लगी।
सभी लोग उनके अन्तिम संस्कार की तैयारी में
लग गये । उनको विदा करने के बाद बाक़ी क्रियाकर्म की तैयारी की जाने लगी ।इन सभी
में पन्द्रह दिन लगे थे । सभी कुछ विधि-विधान
से सम्पन्न हुआ ।
मैं दादी के साथ ज्यादा नहीं रही थी मात्र सात या आठ दिन तक ही उनकेे पास थी किन्तु वे मेरे कमरे में बहुत ही कम आतीं थीं । मैं भी अपने ससुराल में दूसरी बार ही गयी थी । शादी केबाद पढ़ाई के कारण शहर आ गयी और उसी
दौरान नौकरी भी लग गई तो ससुराल जाना ही
नहीं हो पाया । फिर भी दूर से ही सही दादी के प्रति एक लगाव सा तो महसूस करती ही थी ।
“अरे तू क्यों रो रही है ? बच्चे को संभाल
पहले ।” मेरी आंखों में आंसू देख सासू मां ने समझाया।मम्मी तथा तीनों चाची कमरे में खड़ी आपस में धीरे धीरे हंस-हंस कर कुछ बातें कर रहीं थीं। मैं बस उनकेे चेहरों को पढ़ने की ही कोशिश कर रही थी ।शायद उनके अन्दरअपनी सास के जाने का कोई भी ग़म नहीं था। मैंने इन पन्द्रह दिनों में उन्हें कभी रोते हुए नहीं देखा । बाहरी लोगों के सामने वे घूंघट के अन्दर केवल रोने की आवाज़ करतीं थीं पर रोती नहीं थीं ।वे अब स्वयं को आज़ाद महसूस कर रही थीं।भयाक्रांत रहने वाले चेहरों पर एक अजीब सी खुशी नज़र आ रही थी ।
डॉ.सरला सिंह
दिल्ली