जो खुद से ही अंजान है
उसे क्या दुनियादारी समझाई जाए,
एहसान जितनों के हैं हम पर
चलो उनसे ही यारी निभाई जाए।
होगा कभी यूं भी कि वह
खुद से दोस्ती कर लेगें
बड़े कठिन हैं रास्ते इस मंजिल के
चलो खुद को भी समझाया जाए।
टूटते, जुड़ते, बिखरते हैं जो शख्स
चिंगारियों को छूने की हिम्मत रखते हैं
हकीकत क्या है रिश्तों की
चलो फिर से किसी को अपनाया जाए।
जिस राह पर मिले हमनशीं कोई
मेहमान समझ दिल में सजाया जाए
इबादत कहो या मुहब्बत इसे
सजदे में सिर झुके वह जब सामने आए।
—- जयति जैन “नूतन” —-