मैं नारी हूँ गर्व करूँ, या खुद से ही डर जाऊँ मैं।
डर के साये में मैं जीती, क्या खुद ही मर जाऊँ मैं।।
बेटी हो जाए घर में, उसे बोझ समझ के पाला है।
खुशियाँ जब आती घर में, हो जाए एक लाला है।।
क्या किस्मत पाई नारी,बचपन से ही हीन हुई।
देख के ऐसा भेदभाव, क्या खुद ही मर जाऊँ मैं।।
बड़ी हुई जब मानव, मर्यादा का बोझ उसे डाला।
इस दुनिया ने उसको, ये धन है पराया कह डाला।
क्या क्या सहती रहती है, फिर भी चुप रहती नारी।।
दुनिया के ताने सह लूँ, क्या खुद ही मर जाऊँ मैं।।
चार साल की हो या, कितने ही सालों की नारी।
लूट लिया जाता है दामन, हो जाती है बेचारी।।
लूटते है बेदाग है वो, बस नारी होती है दागी।
इस दूषित माहौल में जिंदा, क्या खुद ही मर जाऊँ मैं।।
शादी की वारी आई, दहेज का व्यापार चला।
क्यों बनकर आई लड़की, पल-पल मुझको सबने छला।।
ईश्वर ने भी मुझको छलके, विदा की रश्म बनाई है।
जन्म जहाँ उससे ही विदाई, क्या खुद ही मर जाऊँ मैं।।
श्रीमति वंदना सोनी “विनम्र”
जबलपुर मप्र