निकल पड़ा वो शिखर यात्रा पर
पथरीले पथ पर चलते-चलते
थका नहीं, न हारा ही
न वेवश ही, न बेचारा ही
पांव बढाते पल-पल बढते
अंधियारों को पार किया, यू मचलते
निकल पड़ा———–+—+
सारा गगन समेटा मन में
सारे पीड़ाओं को तन में
ब्रह्माण्ड का चमकता तारा
हंसता रहा गलियारों में, बैठे और टहलते
निकल पड़ा——-++++++—
बीत गयीं शदियाँ आंखों में
चला मिलने अब राखों में
सबके मन में लिए बसेरा
नेह पसारे अब, सबको हैं खलते
निकल पड़ा वो शिखर यात्रा पर
पथरीले पथ पर चलते-चलते।
भीम प्रजापति