प्रिये! तुम विराट और मैं लघु गात,
अभिलषित तेरे उर सिंधु की।
मद्धम होता उर प्रज्वाल जब,
बुझती चिर प्यास इस बिंदु की।
अश्रु बिंदु मेरे अनुनय के,
जाते जब करुणा में हिलमिल।
नेह सिंचित हो दीपक फिर,
जल उठता मुग्ध सा झिलमिल।
लास उल्लास रहित जीवन,
यह पल-पल का अवगुंठण।
अलक्षित हुए हैं श्वास भी,
हृदय करता पल-पल मंथन।
लिए दृगों में प्यास अगणित,
प्राण पाहुन कुछ अकुलाते।
जो मधुरता लघु क्षण में भी,
तुम मेघ में भरकर लुटाते।
मेरे गीले पलकों पर भी,
सहज सज उठता मधुमास।
ओ निष्ठुर मेरे रोम-रोम में,
तुम बोते जो मधुरतम आस।
डॉ उषा किरण
पूर्वी चंपारण, बिहार