इतनी लम्बी उम्र मिली है , पर जीने का वक़्त नहीं,
रिश्तों की भरमार है पर रिश्तों का अस्तित्व नहीं ,
चेहरे पे मुस्कान सभी के, दिल में क्या है स्पष्ट नहीं,
झूठी तारीफों के पुल पर , सच्चाई का वक्तव्य नहीं,
जेब की दौलत लुटवाओ तो, यारों की है लाइन लगी,
पर मुश्किल में मदद मांग लो, फिर तो कोई साथ नहीं.
खून के रिश्ते खून हो गए,अब साँझा बहता रक्त नहीं
रिश्ते नाते मार दिए सब,पर दफ़नाने का वक़्त नहीं ,
मंदिर मस्जिद जहाँ भी देखो जन मानस की भीड़ लगी,
प्रभु के आदर्शों पर जीवन, जीने वाले पर भक्त नहीं ,
सुख में सब लगते हैं अपने, लगते है आसक्त सभी,
पर जब खोजा दुःख में हमने ,मिले हमें विरक्त सभी
अपना अपने को पहचाने ,गए वक़्त की बातें हैं,
जीवन रस की चाह सभी को, पर पीने का वक़्त नहीं,
इतनी लम्बी उम्र मिली है ,पर जीने का वक़्त नहीं,
रिश्तों की भरमार है पर ,रिश्तों का अस्तित्व नहीं ,
—जय प्रकाश भाटिया, लुधियाना
‘विजय पर्व’
सदियों से चली आ रही परम्परा को निभा दिया,
इस दशहरे पर रावण को फिर जला दिया,
खूब चले पटाखे, खूब मेला उत्सव सजा लिया,
बुराई पर अच्छाई का ‘विजय पर्व’ मना लिया,
रावण को जला दिया,
रावण ने छल से सीता हरण किया – जला दिया,
रावण अहंकारी था- जला दिया,
रावण अत्याचारी था- जला दिया,
राम भक्त विभीषण को उसने लात मारी-जला दिया
हनुमान जी को सताया जला दिया ,
उसके भाई कुंभकरण ने उसका साथ दिया
उसे भी जला दिया
पुत्र मेघनाथ ने लक्ष्मण को मूर्छित किया —
उसे भी जला दिया ,
क्या रावण सचमुच जल गया —
जो जला वह तो काले कागज़ और बांस का पुतला था,
निर्जीव था, इसीलिए जला दिया,
क्या रावण सचमुच जल गया,
बुराई का अंत कर अच्छाई का सबब मिल गया,
आज गली गली घूम रहे सफ़ेद पॉश रावण-
कौन उनके विरोध में आवाज़ उठाता है,
हर कोई सहनशील है,
बस सबकुछ देख कर भी सह जाता है.
मारना ही है तो मन के अंदर बैठे रावण को मारो,
इन सफेदपोश रावणो को नक्कारों,
तभी आएगा बुराई पर अच्छाई का ‘विजय पर्व’
अन्यथा हम सदियों से चली आ रही-
इस परम्परा को निभाते रहेंगें ,
हर साल कागज़ी रावण को जला कर भी
असली रावण की मार खाते रहेंगें