चाह मिटे चिंता मिटे मन हो बेपरवाह
जिसे कुछ नहीं चाहिए वही शहनशाह
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आज की प्रबुद्ध पीढ़ी हो युवा पीढ़ी हो या शैशवकाल में पल रहा बचपन, शायद ही कोई एैसा इँसान होगा जिसने
कबीर जी की वाणी को न पढ़ा हो।
ये भी सच है कि एैसे भी कुछ विरले ही इँसान होंगे जिन्होंने कबीर जी की इस अनमोल सुमति से अपने जीवन को समृद्ध किया हो।
आए दिन किसी न किसी प्रकार के वीभत्स हत्याकाँड, बलात्कार, मानसिक शोषण या परस्पर भेदभाव के कारण जँग की ख़बरें सुनने को मिलती हैं।
यूँ तो सोशल मीडिया पर प्रवचन करते कितने ही सुधिजनों के वीडियो देखने को मिलते हैं और अनगिनत विद्वानों के लेख भी पढ़ने को मिलते हैं।
लेकिन चिंतन का विषय ये है कि हमारी युवा पीढ़ी, हमारे प्रौढ़ बँधु और हमारे देश का बचपन, किस नशे की गर्त में डूबते चले जा रहे हैं, जिन्हें इनमें से कुछ भी समझ में नहीं आता, या यूँ कहना ज्यादा उचित होगा कि कोई समझना ही नहीं चाहता।
कृष्ण सुदामा के देश में आजकल कैसी दोस्ती होने लगी है जो निजी स्वार्थों के चलते एक दूसरे का क़त्ल करने से भी नहीं चूकती।
आजकल अपने ही घरों में बेटियाँ सुरक्षित नहीं हैं, इसके पीछे की बीमार मानसिकता का आज तक कोई उपचार सँभव नहीं हो पाया।
कितना हृदयविदारक और शर्मनाक है वो कृत्य जो किसी मासूम बचपन की देह पर प्रहार करके उसकी आत्मा को घायल करता है।
पति पत्नी के सँबँध इतने उलझे हुए हैं कि सबको अपने जोड़े में ख़ामियाँ ही ख़ामियाँ नज़र आती हैं और पराए सँबँधों में मादकता।
प्रेम सँबँधों का तो कहना ही क्या, किसी अभी उम्र का पुरूष हो उसे सोने के लिए महिला का साथ चाहिए, मगर जागने के लिए नहीं।
कहाँ गई वो जागृति जब महिलाएँ ही अपने घर गाँव शहर और देश को स्वर्ग बनाया करतीं थीं।
आज अदालतों के चक्कर लगाती युवा पीढ़ी के बीच सँबँधों के नाम पर केवल अधिकारों की विरासत के काग़ज़ रह गए हैं।
अपने सामाजिक, पारिवारिक और साँस्कृतिक दायित्वों से पल्ला झाड़ती हमारी सभ्यता न जाने किस नश्वर पूँजी के स्वामित्व हेतु अपना अनमोल मानव जीवन ही दाँव पर लगा बैठी है।
आज बच्चों की शिक्षा के नवीन आयाम शिक्षण क्षेत्रों से जुड़े हैं, लेकिन आज का बचपन अपना मार्गदर्शन करती दिन दो पीढ़ियों का अनुकरण कर रहा है, उन्हें शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता है।
टी वी और मोबाइल पर सोशल मीडिया से अवास्तविक आनँद की दिशा तलाशती नई पीढ़ी चारदीवारी में सिमट कर रह गई है।
आँगन से ठँडी छाया और मीठे फल देते बरगद काटे जा रहे हैं और कर्तव्यविमुखता के कारण अनेक ओल्ड एज होम प्रचुर मात्रा में बढ़े हैं।
अकेलेपन की त्रासदी तीनों पीढ़ियों की तक़दीर बन गई है, और इस मानसिक तनाव के उपचार के लिए अनेक सँस्थान खुल गए हैं।
जब तक किसी भी समस्या को जड़ से न उखाड़ा जाए तब तक उसका कोई समाधान मिल ही नहीं सकता।
कोई दवाई, किसी मानसिकता का रूपाँतरण नहीं कर सकती।
केवल अपनी सोच को निस्वार्थता का रँग चढ़ाना होगा तभी मनुष्य सही मायनों में प्रकृति से सामँजस्य बिठा पाएगा।
कितने ही वेद ग्रँथ पढ़ लिए जाएँ, कितने ही जप तप के अनुष्ठान पूरे कर लिए जाएँ लेकिन यदि एक दूसरे का दिल दुखा कर किसी हुकूमत की मिल्कियत मिल भी जाए तो उसका कोई मूल्य नहीं है, क्यूँकि सजदे भी तभी कुबूल होते हैं जब सर के साथ दिल भी झुके।
इसलिए यदि हर तरह की चिंता से मुक्त स्वच्छ एवँ स्वस्थ
समाज का निर्माण करना है तो फक़ीरी से इश्क करके निस्वार्थ प्रेम की इबादत करनी होगी, जो आगामी पीढ़ी में जीवन मूल्यों का बीजारोपण करके विश्व कल्याण की भावना का प्रचार करेगी।
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कर लें एक मुट्ठी राख को महकाने की तैयारी
शहनशाह वही साँसारिक नश्वरता जिसने वारी
कविता मल्होत्रा