फिर वही दहशत है, फिर वही आलम,
प्रवासी मजदूरों का घर को पलायन
बड़ी बेबसी दिख रही हर तरफ है
न दिन-रात की उनको चिन्ता सताती
चले जा रहे … … वे चले जा रहे हैं।
किधर तुम, कहाँ जा रहे मेरे भाई
रुको तुम वहीं, अपनी हिम्मत न हारो
कुछ धीरज धरो,घर में हो तुम सुरक्षित
कहर यह कोरोना का जल्दी मिटेगा
मगर वो रुके बिन चले जा रहे हैं।
लिए सिर पर गठरी… बच्चों को थामे
अभावों को दिल में दबाए- दबाए
ये परदेस अब लग रहा ज्यूं पराया
जहाँ उसने अपनी जवानी है काटी
सड़क पर वो पैदल चले जा रहे हैं।
यहां कोई दिखता नहीं अब स्वजन है
कहें किससे हम अपने मन की ये बातें
भले है व्यवस्था कुछ दिन को गुजारें
परक्या कलको फिरकामसे जुड़सकेंगे
यही सोचकर — वे चले जा रहे हैं।
बसों में खचाखच भरी भीड़ ऐसी
कि लगता है दुनिया चली जा रही है
सब आपस में दुख- दर्द को बांटते हैं-
इस परदेस से अच्छा घर-गांव अपना
चलो अपने घर को, बढ़े जा रहे हैं।
डॉ. राहुल, नयी दिल्ली